राष्ट्रीय एकता और अखंडता पर निबंध || National unity and Integrity Essay
राष्ट्रीय एकता और अखंडता पर निबंध || Essay on National unity and Integrity in Hindi
राष्ट्रीय एकता और अखण्डता
[ रूपरेखा - (1) प्रस्तावना, (2) राष्ट्रीय एकता की कसौटी, (3) राष्ट्रीय एकता को खतरा, (4) एकता भंग करने के कारण, (5) राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता, (6) उपसंहार ।]
प्रस्तावना - राष्ट्र का निर्माण करने वाले तत्व-भूमि, उस पर निवास करने वाले मनुष्य एवं उनकी संस्कृति हैं। भूमि के कण-कण से वहाँ के निवासियों को इतना प्यार होता है कि वे उसके लिए अपना सब कुछ बलिदान कर देते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि राष्ट्र के निवासी समान धर्म, जाति तथा संस्कारों वाले हों। | उनकी संस्कृति में भी थोड़ा-बहुत अन्तर हो सकता है, किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि वे अपने राष्ट्र के लिए मिलकर कार्य करें। आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास करते हुए उसकी शक्ति को बढ़ायें। भिन्नताओं के मध्य एकता स्थापित करके राष्ट्रीय धारा का अंग बनें।
राष्ट्रीय एकता की कसौटी-राष्ट्रीय एकता की परख नित्यप्रति के व्यवहारों से होती है। व्यक्तिगत स्वार्थ, सम्मान आदि से प्रेरित होकर हम राष्ट्र को तोड़ते हैं या कमजोर बनाने वाले कार्य करना ही राष्ट्र-द्रोह है तथा समाजहित को ध्यान में रखकर राष्ट्र को जोड़ने तथा शक्तिशाली बनाने वाले कार्य राष्ट्रभक्ति कहलायेंगे। सच्चा राष्ट्रभक्त अपने देश पर सर्वस्व बलिदान कर देने को सदैव तैयार रहता है।
राष्ट्रीय एकता को खतरा - आज भारत में राष्ट्रीय एकता को खतरा हो गया है। यहाँ धर्म, जाति, सम्प्रदाय, भाषा आदि के नाम पर बिखराव के स्वर सुनायी पड़ने लगे हैं। इनका प्रारम्भ अंग्रेजों की कूटनीति से हुआ। उन्होंने भारत को आजादी देने से पूर्व हिन्दू-मुस्लिम द्वेष के बीज बो दिये। इसी के परिणामस्वरूप पाकिस्तान बना, साम्प्रदायिक विद्रोह हुए तथा अपार जन-धन की हानि हुई ।।
एकता भंग करने के कारण-धर्म के दुरुपयोग से भी राष्ट्रीय एकता प्रभावित हुई है। धर्मान्ध, स्वार्थी, मौलवियों, पण्डों- पुजारियों का भी इस दिशा में असहयोगी व्यवहार रहा है। वोट की राजनीति ने राष्ट्रीय एकता को नष्ट किया है। जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के आधार पर वोट प्राप्त करने के प्रचार के फलस्वरूप वर्षों से प्रेमपूर्वक रहने वालों में कलह फैल गयी है।
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता- भारत की सुरक्षा तथा प्रगति के सुसंचालन हेतु राष्ट्रीय एकता की बहुत आवश्यकता है। भारत को स्वतन्त्र बनाने वाले शहीदों ने जो स्वप्न संजोया था उसको साकार करने के लिए क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, वर्ग आदि की संकुचित सीमाओं से मुक्त होकर समस्त राष्ट्र के उत्थान के कार्य करने होंगे। व्यक्तिगत स्वार्थो को त्यागकर समाज हित का ध्यान रखना होगा। राष्ट्र को कमजोर बनाने वाली विद्रोही शक्तियों को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए कमर कसनी होगी।
उपसंहार- 'संघे शक्तिः कलयुगे' अर्थात् कलियुग में संघ में शक्ति है। इसी को हम कह सकते हैं-' एकता में बल' । यह एकता राष्ट्र के निवासियों के आन्तरिक सद्भाव से ही सम्भव है। व्यक्ति को स्वयं की चिन्ता त्यागकर राष्ट्र की चिन्ता करनी होगी। भारत के समस्त भू-भाग को हृदय से प्यार करना होगा। समाज में धार्मिक कटुता तथा वैमनस्यता के स्थान पर सामंजस्यता तथा सहनशीलता का संचार हो। राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय संविधान, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्राध्यक्ष के प्रति आदर एवं समर्थन का भाव होना चाहिए। जननायकों को वोट का स्वार्थ त्याग देना चाहिए। किसान, व्यापारी, मजदूर, कर्मचारी, शिक्षक, प्रशासक, नेता आदि सभी को धर्म, सम्प्रदाय आदि की सीमाओं से ऊपर उठकर देश के प्रति अपने अंशदान के बारे में सोचना होगा और प्राण-पण से भारतवर्ष की उन्नति में अपनी सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
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