UP Board live Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 3 राबर्ट नर्सिंग होम में
कक्षा 12 (हिंदी) |
पाठ 3 रॉबर्ट नर्सिंग होम में ( कन्हैयालाल मिश्र' प्रभाकर')
(क) बहुविकल्पी प्रश्न
प्रश्न-1 कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर 'का जीवन काल
है!
(ग) सन 1906-1995ई०
(घ) सन 1907-1979ई०
उत्तर-सन 1906-1995 ई०
प्रश्न -2 कन्हैया लाल मिश्र
' प्रभाकर' की कृति है
(ख) चिता के फूल
( ग) पवित्रता
(घ) धरती के फूल
उत्तर- धरती के फूल
प्रश्न -3 कन्हैया लाल मिश्र
'प्रभाकर' द्वारा संपादित समाचार -पत्र है
(ग) जनसत्ता
(घ) पंजाब केसरी
प्रश्न -4 'रॉबर्ट नर्सिंग
होम 'में नामक रिपोर्ताज के लेखक हैं
(ख) राहुल सांकृत्यायन
(ग )कन्हैया लाल मित्र 'प्रभाकर'
(घ) भगवती चरण वर्मा
उत्तर- कन्हैया लाल मिश्र
' प्रभाकर'
(ख)
लेखक संबंधी प्रश्न
1- कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर का जीवन परिचय
देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए
2- कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर का साहित्यिक
परिचय लिखिए
3- कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर का जीवन परिचय
देते हुए उनकी कृतियों और भाषा शैली पर प्रकाश डालिए
उत्तर-
जीवन परिचय - श्री कन्हैयालाल मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के
सहारनपुर जिले के देवबन्द ग्राम में हुआ था।29 मई 1906 को देवबंद (जिला सहारनपुर) में
जन्मे ब्राह्मण संस्कारी बालक कन्हैया ने पांच वर्ष की आयु में ही अंध-विश्वास और रूढ़िवादिता
का विरोध करना आरंभ कर दिया था।
हिंदी साहित्य और हिंदी पत्रकारिता के माथे
पर सांस लेते चंदन शब्दों का तिलक लगाने वाले पद्मश्री कन्हैया लाल मिश्र ’प्रभाकर’
के पास जरूर किसी तांत्रिक-जोगी का दिया हुआ सिद्ध नमक था। तभी तो साधारण बोल-चाल के
शब्दों में उस अद्भुत नमक से वे ऐसा स्वाद पैदा कर देते कि पाठक की आंखें और मन कुंभ
में गंगास्नान के बाद गंगाघाट पर बैठ प्रसाद ग्रहण करने का सुख पाते। दर असल, प्रभाकर
जी ज़िन्दगी लिखते थे - कभी निबंध के नाम से, कभी लघुकथा तो कभी अग्रलेख के नाम से।
और लिखते भी कहां थे ! सीधे जादू टोना करते थे - विचारों पर, जीवन शैली पर। उनका साहित्य
ज़िन्दगी से उठता और ज़िन्दगी बांटता था। एक बानगी प्रस्तुत है -
पटना का रेलवे स्टेशन। जीवन से तंग आये एक
सज्जन रेलगाड़ी से कट कर मर जाने के लिये स्टेशन पर टहल रहे हैं। गाड़ी के आने में
देर है। पता नहीं क्या सोच कर सामने बुक स्टाल से जेब में पड़ी आखिरी अठन्नी देकर
’नया जीवन’ पत्र खरीद लेते हैं। प्रभाकर जी का लेख ’धीरे-धीरे जियो’ जैसे उन्हें ही
ढूंढ रहा था। पढ़ते ही उनकी दुनिया बदल जाती है। उनकी गाड़ी फिर से आशा - उत्साह की
पटरी पर आ जाती है। वे घर लौट पड़ते हैं - सफलता के शिखर छूने का संकल्प लेकर।
यह प्रभाव था ’प्रभाकर’ जी की लेखनी से निकले
शब्दों का। लेखन ’प्रभाकर’ जी के लिये लोक रंजन का माध्यम नहीं था। वे तो लिखते ही
थे - नागरिकता के गुणों का विकास करने के लिये ! वे कहते थे - "हमारा काम यह नहीं
कि हम विशाल देश में बसे चंद दिमागी अय्याशों का फालतू समय चैन और खुमारी में बिताने
के लिये मनोरंजक साहित्य का मयखाना हर समय खुला रखें। हमारा काम तो यह है कि इस विशाल
और महान देश के कोने-कोने में फैले जन साधारण के मन में विश्रंखलित वर्तमान के प्रति
विद्रोह और भव्य भविष्य के निर्माण की श्रमशील भूख जगायें।"
ऐसे उदात्त आदर्श को सामने रख कर साहित्य रचने
वाले साहित्यकार की कलम ओछे समझौते नहीं कर सकती। उसे तो सूली पर लटकते हुए भी अपनी
कलम की धार और पैनी करनी होती है - और यही प्रभाकर जी ने किया भी। उन्होंने अपनी मिशनरी
पत्रकारिता के बारे में बड़ी मार्मिक बात कही है - "यह अनरुके चरण, अनबुझे दीप,
अनझुके ललाट और अनथके शिव संकल्प का संघर्ष था।"
लेखक की भूमिका के प्रति उनका दायित्वबोध कितना
गहरा था इसका एक उदाहरण देखिये। किसी अवसर पर नेहरू जी ने उनसे पूछा - "प्रभाकर,
आज कल क्या कर रहे हो ?" उन्होंने कहा - "आपके और अपने बाद का काम कर रहा
हूं।" जब नेहरू जी ने चौंक कर पूछा - "क्या मतलब हुआ इसका ? " तो प्रभाकर
जी ने जवाब दिया - "पंडित जी, आज देश की शक्ति पुल, बांध, कारखाने और ऊंची - ऊंची
इमारतें बनाने में लगी है। ईंट - चूना ऊंचा होता जा रहा है और आदमी नीचा होता जा रहा
है। भविष्य में ऐसा समय अवश्य आयेगा, जब देश का नेतृत्व ऊंचे मनुष्यों के निर्माण में
शक्ति लगायेगा। तब जिस साहित्य की जरूरत पड़ेगी, उसे लिख-लिख कर रख रहा हूं।"
वस्तुतः साहित्य के माध्यम से प्रभाकर जी गुणों की खेती करना चाहते थे और अपनी पुस्तकों
को शिक्षा के खेत मानते थे जिनमें जीवन का पाठ्यक्रम था। वे अपने निबंधों को विचार
यात्रा मानते थे और कहा करते थे - "इनमें प्रचार की हुंकार नहीं, सन्मित्र की
पुचकार है, जो पाठक का कंधा थपथपाकर उसे चिंतन की राह पर ले जाती है।"
साहित्य और पत्रकारिता को उन्होंने व्यक्ति
और समाज के उत्थान का निमित्त बनाया। हर संस्मरण, हर निबंध इस उत्थान यज्ञ में समिधा
है, इसलिये एक शब्द भी जाया नहीं होना चाहिये, कमजोर या फालतू न हो। उनकी पत्रकारिता
और साहित्य मूलतः सामाजिक सरोकारों का लेखन है। वहां रईसी के अन्तःपुर में या मनोरंजन
के चौराहे पर किसी रक्कासा का नाच - गाना नहीं है, वहां तो आठों पहर आदमी को बदलने
की क्रांतिकारी योजना है। वहां अगर नाच है तो वह तांडव है - तुच्छ मानसिकता के विरुद्ध
! वहां अगर गाना है तो उच्च मूल्यों की ऋचाओं का गान है। प्रभाकर जी ने मैजिनी का यह
वाक्य पढ़ा था - "गुलाम देश में बिना बोये, बिना सींचे दोषों की खेती होती है।"
तभी उन्होंने संकल्प लिया आदर्श व्यक्ति और समाज का निर्माण करने वाले साहित्य के सृजन
का। उनकी यह योजना इस प्रकार पूरी हुई - "ज़िन्दगी मुस्कुराई", "बाजे
पायलिया के घुंघरू", ज़िन्दगी लहलहाई" - ’एक अनुशासित व्यक्ति के निर्माण
की पुस्तकें। "महके आंगन - चहके द्वार" नामक पुस्तक व्यक्ति को परिवार से
जोड़ने वाली, इस परिवार संयुक्त व्यक्ति को राष्ट्र से जोड़ने वाली पुस्तक -
"दीप जले-शंख बजे"। अन्ततः इस राष्ट्र-संयुक्त व्यक्ति को विश्व नागरिक बनाने
वाली पुस्तक "माटी हो गई सोना"।
प्रभाकर जी जिन आदर्शों का शंख फूंक रहे थे,
वे आदर्श स्वयं उन्होंने अपने जीवन में अपनाये थे। 29 मई 1906 को देवबंद (जिला सहारनपुर)
में जन्मे ब्राह्मण संस्कारी बालक कन्हैया ने पांच वर्ष की आयु में ही अंध-विश्वास
और रूढ़िवादिता का विरोध करना आरंभ कर दिया था। युवावस्था में पढ़ाई छोड़, आजादी की
लड़ाई में और सुधार आंदोलनों में खुद को समर्पित कर दिया। जेल यात्राएं और विदेशी शासन
के हाथों यातनाएं सहीं। उनकी पुस्तक "तपती पगडंडियों पर पदयात्रा" इस सबका
लेखा-जोखा है। उनकी निर्मम और योजनापूर्ण ढंग से पिटाई की गई ताकि वे पत्रकारिता के
योग्य न रहें, किन्तु देखिये, अंग्रेज़ी शासन का सूर्य भारत में अस्त हुआ 15 अगस्त
1947 को और ठीक उसी दिन प्रभाकर जी द्वारा संपादित पत्र "विकास" का पुनर्जागरण
(पुनः सूर्योदय) हुआ। अत्याचारी हारा, क्रांतिकारी जीता।
जीवन संबंधी आंकड़ों में जिनकी रुचि है उनके
लिये यहां उल्लेख कर दूं कि वे 1906 में देवबन्द, सहारनपुर में जन्मे। "विकास",
"ज्ञानोदय" और "नया जीवन" का संपादन किया। कवि, निबन्धकार, रिपोर्ताज़
लेखक, लघुकथा लेखक, संस्मरण लेखक, पत्रकार, जीवनी लेखक के रूप में ढेरों पुस्तकें लिखीं।
राष्ट्रीय प्रश्नों पर, सामाजिक स्थितियों पर लेख और टिप्पणियां लिखीं और लिखे - कई
हज़ार पत्र ! 1990 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया
गया। ढेरों सम्मान और पुरस्कार उन पर बरसे। उन्के साहित्य पर विभिन्न विश्वविद्यालयों
में शोध कार्य हुए। 9 मई 1995 को उनका निधन हुआ। ये बातें उस जीवन की बाहरी रेखायें
मात्र हैं जिस जीवन ने समाज की आड़ी-तिरछी रेखाओं के बीच सन्मार्ग ढूंढने की कला निखारी।
महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका साहित्य मात्र दो प्रतिशत बुद्धिजीवी वर्ग के लिये नहीं
है, वह तो सबके जीवन को छूने वाली मंद समीर है।
रेखाचित्र- (1) नई पीढ़ी के विचार, (2) जिन्दगी
मुस्कराई, (3) माटी हो गई सोना, (4) भूले-बिसरे चेहरे। (2) लघु कथा- (1) आकाश के तारे,
(2) धरती के फूल। (3) संस्मरण- दीप जले -शंख बजे। (4) ललित निबन्ध- (1) क्षण बोले कण
मुस्काए, (2) बाजे पायलिया के घुंघरू
संपादन-
नया जीवन विकास समाचार पत्र ज्ञानोदय नवजीवन पत्रिकाएं
उपर्युक्त कृतियां के अतिरिक्त प्रभाकर जी
की एक अन्य महत्वपूर्ण कृति महके आंगन के द्वार है!
कन्हैया
लाल मिश्र प्रभाकर की भाषा में अद्भुत प्रवाह विद्यमान है उनकी भाषा में मुहावरे एवं
उक्त तीनों का सहज प्रयोग हुआ है!
अलंकारिक भाषा से उनकी रचनाओं ने कविता जैसा
सौंदर्य प्राप्त कर लिया है!
प्रभाकर जी हिंदी के मौलिक शैली कार हैं !उनकी
गद्य शैली चार प्रकार की हैं भावात्मक शैली वर्णनात्मक शैली नाटकीय शैली चित्रात्मक
शैली!
गद्यांश
के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर!
यह अनुभव कितना चमत्कारी है कि यहां जो जितनी
अधिक बूढ़ी है वह उतनी ही अधिक उत्फुल मुस्कानमयी
है! यह किस दीपक की जोत है? जागरूक जीवन की! लक्ष दर्शी जीवन की! सेवानिरत
जीवन की! अपने विश्वासों के साथ एकाग्र जीवन की! भाषा के भेद रहे हैं, रहेंगे
भी ,पर यह जोत विश्व की सर्वोत्तम ज्योत है!
प्रसंग-
प्रभाकर जी एक बार अपनी परिचित रोगिणी के साथ इंदौर के राबर्ट नर्सिंग होम मे ठहरे! उन्होंने नर्सिंग होम की वयोवृद्ध नर्स मदर टेरेजा के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर
उसका वर्णन इस प्रकार किया है-
●
व्याख्या
- मदर टेरेसा उस नर्सिंग होम की सर्वाधिक बृद्ध नर्स है! यहां रहकर लेखक को जो अनुभव
हुए उन्होंने लेखक को विस्मित कर दिया! इस नर्सिंग होम में जो नर्स सर्वाधिक वृद्ध
है, वह उतनी ही अधिक क्रियाशील और सेवा परायण है वह उतनी ही अधिक प्रसन्न रहती है और
उसके चेहरे पर उतनी ही अधिक मुस्कान खिली रहती है! इन नर्सों के अंदर कोई अलौकिक तेज
है जिससे इनका जीवन सजग बन गया है! यह सब किसी लक्ष्य केंद्रित सेवा परायण जीवन के
प्रकाश को विकिरण करने वाले प्राणियों का समूह है! अनिमे अद्भुत विश्वास भरा हुआ है!
इनका जीवन एकाग्र साधना का जीवन है! आज भी यह भयंकर रोग से पीड़ित रोगियों को अपनी
मुस्कान भरी सेवा से जीवित रहने का अमर संकल्प देती है! यद्यपि यहां पर रहने वाली नर्सों
के देश अलग अलग है, भाषा में भिन्न-भिन्न है किंतु इनके मन में जलने वाली प्यार और
सेवा की ज्योति अद्भुत एवं सर्वोत्तम है!
साहित्यिक
सौंदर्य -1 यहां लेखक ने नर्सों के जीवन को दीपक की जोत कहा है दीपक की जोत अंधकार
में प्रकाश फैलती हैं: नर्स से निराश और दुखी मानव के मन में जीवन का प्रकाश भरती है!
2 यहां नर्सों के जीवन को अलौकिक और सर्वोत्तम
बताकर उनकी सेवा भावना की महिमा स्वीकार की गई है!
3 भाषा - साहित्यिक परिमार्जित
4
शैली - भावात्मक तथा विचारात्मक
एक टिप्पणी भेजें