UP Board solutions for class 12 sahityik Hindi खंडकाव्य chapter 3 रश्मिरथी
UP Board solutions for class 12 sahityik Hindi खंडकाव्य chapter 3 रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर)
प्रश्न 1. 'रश्मिरथी' खंडकाव्य के प्रथम सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'रश्मिरथी' खंडकाव्य के द्वितीय सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'रश्मिरथी' खंडकाव्य के तृतीय सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'रश्मिरथी' खंडकाव्य के प्रारंभिक तीन सर्गों की कथा संक्षेप में लिखिए।
अथवा
'रश्मिरथी' खंडकाव्य के चतुर्थ सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'रश्मिरथी' के पंचम सर्ग की कथा संक्षेप में लिखिए।
अथवा
'रश्मिरथी' काव्य के सातवें (अंतिम) सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
'रश्मिरथी' खंडकाव्य का कथानक (सारांश) संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-
प्रथम सर्ग-
तेज की साक्षात मूर्ति महान वीर कर्ण का जन्म कुंती की कुमारावस्था में सूर्य के वरदान से हुआ था। लोकापवाद के भय से कुंती ने इस शिशु को नदी में बहा दिया। वहां से वह दुर्योधन के सारथी अधिरथ को मिल गया। अधिराज और उसकी पत्नी राधा ने ही इस शिशु का पालन किया इसलिए समाज में वह सूत पुत्र, अधिरथ सुत अथवा राधेय नाम से ही जाना जाता है।
द्रोणाचार्य द्वारा अपने शिष्यों के शास्त्र विद्या का प्रदर्शन करने हेतु आयोजित उत्सव में कर्ण ने अचानक पहुंचकर अपने रण कौशल का प्रदर्शन कर अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा।
कर्ण के अपूर्व बल, शस्त्र कौशल आदि गुणों को देखकर दुर्योधन ने कर्ण से प्रभावित होकर उसे अंग देश का राजा घोषित कर दिया। यहीं से कर्ण और दुर्योधन की गाढ़ी मित्रता का सूत्रपात होता है और यहीं से उसके हृदय में द्रोण के शिष्य अर्जुन के प्रति वैर का अंकुर पैदा हो जाता है।
विवाद की स्थिति में ही उत्सव समाप्त हुआ। गौरव अंगेश कर्ण को साथ लेकर जय गान करते हुए अपने महल की ओर चल दिए।
द्वितीय सर्ग-
कर्ण की गुरुभक्ति से परशुराम जी अत्यंत प्रसन्न थे। परंतु एक दिन एक विचित्र घटना घटित हुई। माघ का शीतकाल पत्तों से छन-छन कर आनंददायक धूप पड़ रही थी और कर्ण की जगह पर सिर रखकर सो रहे थे उसके गुरु- महामुनि परशुराम। अचानक एक कीड़ा कर्ण की जंघा को काटता हुआ मांस में घुस गया। खून की धार बह चली। गुरु की निंद्रा भंग होने के भय से वह पीड़ा सहकर भी हिला तक नहीं। लेकिन खून की धारा के स्पर्श से परशुराम जी की नींद खुल गई।
कर्ण की सहनशक्ति को देखकर परशुराम जी चकित हो उठे। उन्हें कर्ण के ब्राह्मण होने में संदेह हो गया। उन्होंने कर्ण से पूछा - 'बता तू कौन है'? क्षत्रिय ही इतना कष्ट सहन कर सकता है' कर्ण ने गुरु के चरणों में गिरकर अपना सही परिचय दिया। सारा भेद खुल गया। क्रुद्ध परशुराम ने अपने प्रिय शिष्य को कोई दंड तो नहीं दिया किंतु शाप दे दिया कि जो विद्या उन्होंने उसे सिखाई है, उसे वह समय पर भूल जाएगा - वह समय पर काम नहीं आएगी।
तृतीय सर्ग -
पांडवों के वनवास एवं अज्ञातवास का समय समाप्त हुआ। वन की कठिनाइयों को झेलकर उनका पुरुषार्थ और चमक उठा था । दुर्योधन ने उन्हें राज्य में भाग देना अस्वीकार कर दिया अतः अब युद्ध के अतिरिक्त और कोई चारा ना था । युद्ध के विनाश से बचने के लिए श्री कृष्ण दुर्योधन के पास संधि का प्रस्ताव लेकर स्वयं हस्तिनापुर गए और पांडवों को केवल 5 गांव देने का प्रस्ताव रखा किन्तु दुर्योधन ने सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने से इंकार कर दिया। श्री कृष्ण को बंदी बनाने का प्रयास भी किया गया।
हस्तिनापुर वापस लौटते समय श्री कृष्ण ने कर्ण से समस्त राज्य एवं वैभव लेकर दुर्योधन का साथ छोड़ देने का आग्रह किया ताकि विश्व भावी युद्ध के संकट से बच सकें। किंतु कर्ण ने दुर्योधन की मित्रता को निभाने के लिए श्री कृष्ण के इस आग्रह को ठुकरा दिया और कहा कि मित्रता के लिए मैं इस धरती का राज्य तो क्या बैकुंठ को भी न्योछावर कर दूंगा।
चतुर्थ सर्ग-
कर्ण महान दानवीर था। एक दिन कर्ण गंगा में खड़े होकर सूर्य का ध्यान कर रहा था । सहसा लताओं की ओट से विप्र वेषधारी इंद्र याचक के रुप में उपस्थित हुए। कर्ण ने कहा, "चाहे धरती, आकाश, ध्रुव तारा आदि सब विचलित हो जाएं पर कर्ण अपने वचन से नहीं डिग सकता। आप निसंकोच होकर जो चाहे मांग लें।" तब ब्राह्मण ने कर्ण के जन्मजात कवच और कुंडल दान में मांग लिए और कर्ण ने सहर्ष उन्हें कवच - कुंडल दान कर दिए।
कर्ण की दानवीरता से प्रसन्न होकर इंद्र ने उसे वह अमोघ एकघ्नी शर प्रदान किया जिसका केवल एक बार ही प्रयोग हो सकता था । शर को देकर इंद्र चले गए ।
पंचम सर्ग-
महाभारत के युद्ध की तैयारी हो चुकी थी। कर्ण कारण था कि या तो अर्जुन ही जीवित रहेगा या कर्ण, दोनों में से एक की मृत्यु अवश्य होगी। कुंती चिंतित थी। कर्ण मरे या अर्जुन - पुत्र कुंती का ही जाएगा। चिंता में डूबी हुई कुंती कर्ण के पास गई । कर्ण ने कुंती के आगमन का कारण पूछा तो कुंती ने कहा, "मैं तुम्हारी मां, तुमसे याचना करने आई हूं कि तुम दुर्योधन का पक्ष छोड़कर अपने छोटे भाइयों के साथ आकर उनकी रक्षा करो और विजयश्री प्राप्त कर राज्य का भोग करो ।"
कर्ण स्पष्ट कह देता है- कर्ण राधा के सिवाय किसी को अपनी मां नहीं मानता । दुर्योधन को छोड़ना भी उसके लिए संभव नहीं है। कर्ण कहता है, "यदि युद्ध में मैं मर गया तो पांडव, उसके 5 पुत्र रहेंगे ही, और यदि अर्जुन मर गया तो भी उसके 5 पुत्र रहेंगे ।
षष्ठ सर्ग -
महाभारत का युद्ध आरंभ हुआ । दसवें दिन कौरव के सेनापति भीष्म पितामह धराशाई होकर सरसैया पर लेट गए । कर्ण भी युद्ध में उतरने के लिए भीष्म पितामह का आशीर्वाद लेने गया । भीष्म के चरणों की धूल लेकर कर्ण ने गरजते हुए युद्ध में प्रवेश किया । अगले दिन द्रोणाचार्य को सेनापति बनाया गया।
कर्ण और अर्जुन के बीच बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। कौरवों ने विजय की लालसा में धर्म की नीति का त्याग कर दिया । अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु तथा भूरिश्रवा को अधर्म नीति से मार दिया ।
कृष्ण ने भीम के पुत्र असुर घटोत्कच को युद्ध में उतार दिया । घटोत्कच द्वारा कौरव सेना के भयानक संहार को देखकर दुर्योधन घबरा गया। उसने कर्ण से घटोत्कच पर इंद्र द्वारा दिए गए एकघ्नी शर का प्रयोग करने के लिए आग्रह किया । विवश होकर कर्ण को उस अमोघ अग्निशर का प्रयोग करना पड़ा जिसे उसने अर्जुन के वध के लिए सुरक्षित रख रखा था। इस प्रकार श्रीकृष्ण की योजना सफल हुई । घटोत्कच तो मर गया किंतु अर्जुन अभय हो गया ।
सप्तम सर्ग-
14 वें दिन द्रोणाचार्य भी वीरगति को प्राप्त हुए, तब कर्ण को कौरव दल का सेनापति बनाया गया । कर्ण ने भयानक नरसंहार किया । कुछ क्षणों बाद अर्जुन का रथ कर्ण के सामने आ गया । दोनों ओर से घनघोर बाणवर्षा आरंभ हुई। कर्ण के कवच विहीन - शरीर पर भी अर्जुन के बाण बेकार हो जाते थे। कर्ण के तीक्ष्ण बाणों के प्रहार से मूर्छित होकर अर्जुन रथ में गिर पड़े । अर्जुन कुछ ही क्षणों में चेतना में आकर पुनः भीषण बाणवर्षा करने लगे । श्री कृष्ण ने अर्जुन से अपना समस्त रणकौशल दिखाने के लिए उत्साहित किया ।
कर्ण ने शल्य से कहा कि वह उसका रथ अर्जुन के रथ के पास ले चले परंतु अर्जुन के रथ के निकट पहुंचते ही कर्ण का रथ खून की दल-दल में धंस गया । कर्ण के बहुत जोर लगाने पर भी पहिया दलदल से निकल ही नहीं पा रहा था। तभी श्री कृष्ण ने कर्म को विपत्ति में फंसा हुआ, शस्त्रहीन देखकर अर्जुन को तीक्ष्ण बाणों से कर्ण पर प्रहार करने को कहा । श्री कृष्ण का आदेश पाकर अर्जुन ने धर्म की नीति को त्याग कर निहत्थे कर्ण पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी । अर्जुन का एक तीक्ष्ण बाण लगा और कर्ण का सिर धरती पर गिर गया ।
प्रश्न 2. 'रश्मिरथी' के आधार पर इसके मुख्य पात्र (नायक) कर्ण के चरित्र पर प्रकाश डालिए ।
अथवा
'रश्मिरथी' के आधार पर कर्ण की वीरता एवं त्याग का वर्णन कीजिए।
अथवा
'रश्मिरथी' में व्यक्त कर्ण के मान से अंतर्द्वंद (संवेदना) को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
'रश्मिरथी'खंडकाव्य के आधार पर कर्ण के व्यक्तित्व एवं चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
'रश्मिरथी' खंडकाव्य में कर्ण के किन गुणों पर कवि ने विशेष रूप से प्रकाश डाला है ? लिखिए ।
उत्तर-
महाभारत काल का अप्रतिम योद्धा, कुंती की दिव्य संतान, महान दानवीर कर्ण रश्मिरथी काव्य का नायक है कर्ण के चरित्र में हम निम्नलिखित विशेषताएं पाते हैं-
वर्ण भेद तथा कुल भेद का शिकार - कर्ण उच्च कुलीन अनेक श्रेष्ठ गुणों का आगार तथा सर्वप्रशंसित वीर था। किंतु समाज की जाति - भेद तथा कुलीनता की कुत्सित परंपराओं के कारण उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । उसके जीवन की सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि प्रत्येक अवसर पर उसका तिरस्कार इसलिए हुआ कि वह राजपूत क्षत्रिय नहीं है।
अत्यंत तेजस्वी तथा शौर्य की प्रतिमा--
सूर्य का पुत्र कर्ण सूर्य के समान ही तेजस्वी तथा शौर्य की प्रतिमा है। उसके शरीर पर जन्मजात कवच और कुंडल अलौकिक आभा दिखाते हैं।
भीष्म पितामह कर्ण को अर्जुन के समान धनुर्धारी तथा श्री कृष्ण के समान योद्धा मानते हैं।
दृढ़प्रतिज्ञ तथा वचन का पक्का--
कर्ण जो प्रतिज्ञा करता है , उसका दृढ़ता से पालन भी करता है। वह दुर्योधन को एक बार उसकी सहायता का वचन दे देता है और प्राण देकर भी उस वचन का पालन करता है। कर्ण ने कुंती को वचन दिया था कि वह युद्ध में अर्जुन को छोड़ किसी अन्य पांडव को नहीं मारेगा इस वचन का भी वह मृत्यु पर्यंत पालन करता है।
सच्चा मित्र-- कर्ण एक सच्चा मित्र है।वह एक बार दुर्योधन से मित्रता करता है और फिर अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी उस मित्रता का पालन करता है। राज्य का भोग और माता का प्यार भी उसकी मित्रता को डिगाने में समर्थ नहीं हो पाता है वास्तव में कर्ण में वे सभी विशेषताएं हैं जो एक सच्चे आदर्श मित्र में होनी चाहिए।
महान वीर---
कर्ण का चरित्र एक आदर्श वीर का चरित्र हैं। उसमें चारों प्रकार की वीरता का चरम उत्कर्ष दिखाई पड़ता है वह अजेय युद्धवीर अप्रतिम दानवीर तथा अनुपम दया भी रहे हैं।
मानवीय सद्गुणों का आगार---
कण का चरित्र श्रेष्ठ मानवीय सद्गुणों का आगाय है। उस महान गुणागार की मृत्यु पर श्री कृष्ण को भी हार्दिक खेद होता है।
स्पष्ट है कि कर्ण का चरित्र एक आदर्श महापुरुष का चरित्र है उसका चरित्र सर्वथा सजीव और मानवी है।
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