बेसिक शिक्षा/ बुनियादी शिक्षा /वर्धा शिक्षा योजना 1937 || buniyadi shiksha
बेसिक शिक्षा/ बुनियादी शिक्षा /वर्धा शिक्षा योजना 1937 || buniyadi shiksha
•बेसिक शिक्षा या वर्धा शिक्षा के प्रवर्तक महात्मा गांधी थे।
•इसे आधारभूत प्राथमिक शिक्षा के नाम से भी जाना जाता है।
•अक्टूबर 1937 में वर्धा में मारवाड़ी शिक्षा समाज की रजत जयंती समारोह का आयोजन किया गया था इसके अध्यक्ष श्रीमन नारायण अग्रवाल थे जिन्होंने यह समारोह में देश के लेखकों ,विद्वानों तथा समाज सुधारकों को आमंत्रित किया था।
•इसके मुख्य अतिथि महात्मा गांधी थे।
•इस सम्मेलन को अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है।
•इस सम्मेलन में महात्मा गांधी ने प्राथमिक शिक्षा पर अपने विचार प्रस्तुत किए जिसे बेसिक शिक्षा के नाम से जाना जाता है।
बेसिक शिक्षा की रूपरेखा
1- 6 से 14 वर्ष तक के बालकों के लिए निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा।
2- वे अभिभावक जिनकी मासिक आय ₹10 प्रति माह से कम हो उन्हें किसी प्रकार का कोई भी शुल्क देना हो।
3- शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए।
4- शिक्षा किसी ना किसी आधारभूत उद्योग या शिल्प पर आधारित होनी चाहिए।
5- उद्योगों का चुनाव बच्चों की योग्यता तथा स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।
6- शिल्प की शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक विकास नैतिक विकास तथा विज्ञान को भी महत्व दिया जाना चाहिए।
बेसिक शिक्षा के दोष-
1- हस्त कौशल पर अधिक बल
2- नगरीय क्षेत्रों के लिए प्रभावी शिक्षा
3- कच्चे माल की बर्बादी
4- धन ,समय व शक्ति का अपव्यय
वर्धा बुनियादी शिक्षा | वर्धा बुनियादी शिक्षा के सिद्धांत | बुनियादी शिक्षा के उद्देश्य | वर्धा शिक्षा योजना के गुण - दोष
महात्मा गाँधी ने 31 जुलाई 1937 को हरिजन में अपने शिक्षा सम्बन्धी मत को प्रकट करते हुए लिखा है- "शिक्षा आत्म निर्भर होनी चाहिए ।" शिक्षा से मेरा अभिप्राय है- "बच्चे एवं मनुष्य की सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का सर्वांगीण विकास । साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न आरम्भ। यह तो केवल अनेक साधनों में से एक साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य या स्त्री को शिक्षित किया जाता है। साक्षरता स्वयं शिक्षा नहीं है। अतः बच्चे की शिक्षा उसे एक उपयोगी हस्त शिल्प सिखाकर और जिस समय वह अपनी शिक्षा आरम्भ करता है, उसी समय से उसे उत्पादन करने के योग्य बनाकर आरम्भ करना चाहता हूँ । इस प्रकार यदि राज्य स्कूलों में निर्मित की जाने वाली वस्तुओं को खरीद लें, तो प्रत्येक स्कूल को आत्म निर्भर बनाया जा सकता है।"
वर्धा शिक्षा योजना का जन्म-
"अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन" को वर्धा शिक्षा सम्मेलन भी कहा जाता था, सम्मेलन में उपस्थित लोगों के समक्ष, गाँधीजी ने "बुनियादी शिक्षा" की नयी योजना प्रस्तुत करते हुए कहा- "देश की वर्तमान शिक्षा पद्धति किसी भी तरह देश की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकती है। इस शिक्षा द्वारा जो भी लाभ होता है, उससे देश का कर देने वाला प्रमुख वर्ग वंचित रह जाता है। अत: प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम कम से कम सात साल का हो, जिसके द्वारा मैट्रिक तक का ज्ञान दिया जा सके, पर इनमें अंग्रेजी के स्थान पर कोई अच्छा उद्योग जोड़ दिया जाये। सर्वतोमुखी विकास के उद्देश्य से सारी शिक्षा जहाँ तक हो सके, किसी उद्योग के द्वारा दी जाये, जिससे पढ़ाई का खर्च भी अदा हो सके। जरूरी यह है कि सरकार उन बनी हुई चीजों को राज्य द्वारा निश्चित की गयी कीमत पर खरीद ले।" ' इस सम्मेलन में विचार विमर्श के पश्चात् पूर्ण योजना बनाने के लिए डॉ० जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में एक समिति बनायी गयी समिति ने दिसम्बर सन् 1937 और अप्रैल 1938 में अपनी दो रिपोर्ट प्रस्तुत की। उन्हीं को हम वर्धा शिक्षा योजना कहते हैं जो कि बेसिक शिक्षा या बुनियादी शिक्षा के नाम से जानी जाती है। इस योजना की जांच के लिए बम्बई के मुख्यमंत्री श्री बी०जी० खरे की अध्यक्षता में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की ओर से समितियों का गठन किया गया। खरें समिति ने बेसिक शिक्षा योजना के सम्बन्ध में रिपोर्ट देते हुए कहा कि इस योजना को ग्रामीण क्षेत्रों में आरम्भ किया जाये तथा निम्न बातें शामिल हों
वर्धा बुनियादी शिक्षा के सिद्धांत-
1. जनसाधारण की शिक्षा-
भारत की अधिकांश साधारण जनता, अज्ञानता के अंधकार से आवृत्त है। यही कारण है कि बुनियादी शिक्षा का प्रथम सिद्धान्त- जनसाधारण को शिक्षित बनाना निर्धारित किया गया है। इस तरह गाँधीजी के निम्नांकित कथन के अनुसार कार्य किया जा रहा है- "जनसाधारण की अशिक्षा भारत का पाप और कलंक है। अत: उसका अन्त किया जाना अनिवार्य है।"
2. निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा- गाँधीजी ने भारत के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की।
3. स्वावलम्बी शिक्षा- गाँधीजी ने बुनियादी शिक्षा के आधारभूत सिद्धान्त की ओर संकेत करते हुए कहा “सच्ची शिक्षा स्वावलम्बी होनी चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि शिक्षा से पूँजी के अतिरिक्त वह सब धन मिल जाना चाहिए, जो उसे प्राप्त करने में व्यय किया जाये । "बुनियादी शिक्षा के इसी स्वावलम्बी पहलू के प्रति विशेष ध्यान देकर उसे स्वावलम्बी बनाया गया है
4. सामाजिक शिक्षा - बुनियादी शिक्षा के द्वारा एक ऐसे समाज का नव-निर्माण करने का प्रयत्न किया जा रहा है, जो स्वार्थ एवं शोषण विहीन हो, जो प्रेम एवं न्याय पर आधारित हो, और जिसके मूलमन्त्र - सत्य एवं अहिंसा हों। यही कारण है कि बुनियादी विद्यालयों में बालकों को इसी प्रकार के समाज में रहने का प्रशिक्षण दिया जाता है।
5. शिक्षा का माध्यम, "मातृभाषा" - बुनियादी शिक्षा का माध्यम मातृभाषा है। इतिहास हमें बताता है कि किसी - देश की संस्कृति का विनाश करने के लिए, उसके साहित्य का विनाश किया जाता है। इसी सिद्धान्त का अनुगमन करके, अंग्रेजों ने हमारे देश में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया बुनियादी शिक्षा में अंग्रेजी को कोई स्थान नहीं दिया गया है और मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया गया है।
6. हस्तशिल्प की शिक्षा - बुनियादी शिक्षा में हस्तशिल्प का केन्द्रीय स्थान है और सब विषयों की शिक्षा उसी के माध्यम से दी जाती है। हस्तशिल्प को केन्द्रीय स्थान प्रदान करने का कारण गाँधीजी के अग्रांकित शब्दों से विदित हो जाता है-"साक्षरता स्वयं शिक्षा नहीं है अतः मैं बच्चे की शिक्षा उसे एक उपयोगी हस्तशिल्प सिखाकर और जिस समय से वह अपनी शिक्षा आरम्भ करता है, उसी समय से उत्पादन करने के योग्य बनाकर आरम्भ करना चाहता हूँ ।
7. शारीरिक श्रम - बुनियादी शिक्षा में हस्तशिल्प के माध्यम से शारीरिक श्रम को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। इससे अग्रांकित चार लाभ होते हैं- (1) इससे बालकों की शिक्षा का व्यय निकल आता है। (2) इससे उनको किसी व्यवसाय का प्रशिक्षण प्राप्त हो जाता है, (3) इससे उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न होता है और उनमें शारीरिक श्रम के प्रति घृणा नहीं रह जाती है, और (4) गाँधीजी के शब्दों में - "बालक के शरीर के अंगों का विवेकपूर्ण प्रयोग, उसके मस्तिष्क को विकसित करने की सर्वोत्तम और शीघ्रतम् विधि है।"
बुनियादी शिक्षा के उद्देश्य-
(1) नागरिकता के विकास का उद्देश्य- जनतन्त्रीय शासन प्रणाली में प्रत्येकं व्यक्ति शासन के प्रति उत्तरदायी होता है और राज्य के प्रति उसके कर्त्तव्यों में वृद्धि हो जाती है किन्तु इसके साथ-साथ उसे अनेक अधिकार भी प्राप्त हो जाते हैं। वह इन कर्त्तव्यों का पालन और अधिकारों का उपयोग तभी कर सकता है जब वह उनके प्रति सजग हो। इसके लिए ऐसी शिक्षा आवश्यक है, जो उसमें नागरिकता के सब गुणों का विकास करे । बुनियादी शिक्षा इन गुणों के विकास में योग देती है।
(2) संस्कृति के विकास का उद्देश्य- हमारी शिक्षा-प्रणाली का एक प्रत्यक्ष दोष यह है कि उसमें भारतीय संस्कृति का ज्ञान न कराया जाकर, बालकों को पाश्चात्य आदर्शों और विचारों का भक्त बनाया जाता है। फलस्वरूप, वे अपनी परम्परागत संस्कृति से पूर्णतया अनभिज्ञ रहते हैं। इसके दूषित परिणाम को बताते हुए गाँधीजी ने लिखा है, "यदि किसी स्थिति में पहुँच कर एक पीढ़ी अपने पूर्वजों के प्रयासों से पूर्णतया अनभिज्ञ हो जाती है या उसे अपनी संस्कृति पर लज्जा आने लगती है तो वह नष्ट हो जाती है।" अपने इस विचार में दृढ़ विश्वास रखने के कारण गाँधीजी ने शिक्षा की अपेक्षा शिक्षा के सांस्कृतिक पक्ष को अधिक महत्त्व दिया है। इसी उद्देश्य से बुनियादी शिक्षा में भारतीय उद्योग या शिल्पों को आधारभूत स्थान दिया गया है और शिक्षा को भारतीय संस्कृति के अनुरूप बनाया गया है।
(3) चारित्रिक विकास का उद्देश्य -आधुनिक भारतीय समाज का अविराम गति से नैतिक पतन हो रहा है। अतः बुनियादी शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य है- बालक का नैतिक विकास करना। नैतिक शिक्षा में अपना विश्वास प्रकट करते हुए गाँधीजी ने लिखा है- "मैंने हृदय की संस्कृति या चारित्रिक निर्माण को सर्वोच्च स्थान दिया है। मुझे विश्वास है कि नैतिक प्रशिक्षण सबको समान रूप से दिया जा सकता है। इस बात से कोई प्रयोजन नहीं है कि उनकी आयु और पालन-पोषण में कितना अन्तर है।"
(4) त्रिविध विकास का उद्देश्य- भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में केवल बालक के मानसकि विकास पर बल दिया जाता है। उसमें बालक के शारीरिक और आध्यात्मिक विकास के प्रति रंचमात्र भी ध्यान नहीं दिया जाता है। इस प्रकार, बालक का केवल एकांगी विकास होता है। इसके विपरीत बुनियादी शिक्षा में बालक के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के प्रति पूर्ण ध्यान दिया जाता है। पाठ्यक्रम में इस प्रकार के विषयों का समावेश किया गया है, जिनसे बालक का तीनों प्रकार का अर्थात् त्रिविधि विकास होना निश्चित हो जाता है। इस विकास पर बल देते हुए गाँधीजी ने कहा है- "शिक्षा से मेरा अभिप्राय है- बालक और मनुष्य की सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों का सर्वतोन्मुखी विकास ।"
(5) आर्थिक विकास का उद्देश्य -इस उद्देश्य के दो अभिप्राय है- बालको द्वारा बनायी जाने वाली वस्तुओं को बेचकर विद्यालय के व्यय की आंशिक पूर्ति करना, और बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् बालकों का किसी उद्योग के द्वारा धन का अर्जन करना। इस सम्बन्ध में स्वयं गाँधीजी ने लिखा है- "प्रत्येक बालक और बालिका को विद्यालय छोड़ने के पश्चात् किसी व्यवसाय में लगाकर स्वावलम्बी बनाना चाहिए।"
(6) सर्वादय समाज की स्थापना का उद्देश्य- आज का सम्पूर्ण समाज- स्वार्थ सिद्धि का नीति का अनुशरण कर रहा है। यह समाज स्पष्ट रूप से दो वर्गों में विभक्त है- धनवान और धनहीन। ये दोनों वर्ग विकृत हैं- पहला, धनं की प्रचुरता के कारण और दूसरा, धन के अभाव के कारण | बुनियादी शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य है- इस "विकृत समाज" के स्थान पर "सर्वोदय समाज" की स्थापना करने की चेष्टा की जाती है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर डॉ० एम० एस० पटेल ने लिखा है "बुनियादी शिक्षा के उद्देश्य में से एक उद्देश्य यह है-गाँधीजी की सर्वोदय समाज की धारणा के अनुसार भारतीय समाज का पुन: संगठन करना । "
बुनियादी शिक्षा के गुण-
(1) बालक की प्रधानता - बुनियादी शिक्षा बालक प्रधान है। इस शिक्षा में बालक "ग्राहक" यानि विद्या लेने वाला होता है। अतः उसकी आवश्यकताओं की जानकारी करके उनको पूरा करने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए बालक विद्यालय के प्रत्येक कार्य तथा प्रयास में पूर्ण रुचि लेता है।
(2) क्रिया की प्रधानता - बुनियादी शिक्षा क्रिया प्रधान है, क्योकि इसमें सम्पूर्ण ज्ञान का आधार अनुभव माना जाता है। रायबर्न के अनुसार- "बालक हस्तशिल्प के क्षेत्र में सक्रिय रहकर, मानसिक अनुभवों के साथ-साथ अन्य प्रकार के अनुभव भी प्राप्त करता है।" यह सिद्धान्त करो और सीखो के सिद्धान्त पर आधारित है।
(3) आर्थिक आधारशिला- बेसिक शिक्षा का आधार आर्थिक है। इसके पक्ष में दो तर्क हैं- (1) बालक शिल्प की शिक्षा पाकर, वस्तुओं को बेचकर आंशिक रूप में विद्यालय और अपनी शिक्षा का व्यय निकाल सकता है। (2) किसी हस्त शिल्प में प्रवीणता प्राप्त करके स्वतन्त्र रूप से जीविका उपार्जन करता है। डॉ० मुकर्जी के अनुसार- "बुनियादी शिक्षा का प्रयोजन, बेरोजगारी की समस्या का समाधान करना है।"
(4) सामाजिक आधारशिला -बुनियादी शिक्षा का आधार सामाजिक है क्योंकि उसमें बालक के सामाजिक गुणों का विकास करने का प्रयास किया जाता है। हस्तशिल्प के द्वारा उनमें आत्म संयम, आज्ञा पालन, सहयोग, सहिष्णुता आदि गुणों का विकास किया जाता है। बुनियादी शिक्षा के निर्माताओं ने यह आशा प्रकट की है कि- "व्यावहारिक उत्पादक कार्य शारीरिक और मानसिक कार्यकर्ताओं के मध्य उपस्थित द्वेष की दीवार नष्ट कर देगा। "
(5) हस्तश्रम की महत्ता- बालक को हाथ से कार्य करने की शिक्षा दी जाती है। वह श्रम के महत्त्व को समझने लगता है। भारत देश में अंग्रेजी शिक्षा ने सबको निकम्मा बना दिया है जो हाथ से काम को नीचा काम समझते हैं।
(6) बालक में आत्मनिर्भरता की भावना का विकास - बुनियादी शिक्षा बालक में आत्मनिर्भरता की भावना को उत्पन्न करती है। यह शिक्षा इस प्रकार की है जिससे बालक उत्पादित वस्तुओं को बेचकर अपना छोटा छोटा खर्च पूरा कर सकता है और आत्मनिर्भर बन सकता है।
(7) मातृभाषा शिक्षा का माध्यम -बुनियादी शिक्षा का सरल एवं स्वाभाविक माध्यम मातृभाषा ही है। अपने देश में बच्चों का शब्द भण्डार ही मातृभाषा का होता है और उसी के द्वारा वे अपने विचार को सरलता से व्यक्त कर सकते हैं या दूसरों के विचार ग्रहण कर सकते हैं। दुर्भाग्य से हमारे देश में मातृभाषा का स्थान अंग्रेजी ने ले लिया था जो सर्वदा अस्वाभाविक था और बच्चों के ऊपर भार स्वरूप था।
(8) बालक में आध्यात्मिकता का विकास- बेसिक शिक्षा बालक के आध्यात्मिकता के विकास पर पूर्ण ध्यान देती है और उसकी आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूर्ण करती है। यह शिक्षा बालक को अपने और सामाजिक जीवन को पूर्णता के आनन्द का अनुभव कराती है।
(9) शिल्प द्वारा शिक्षा - बुनियादी शिक्षा का माध्यम आधारभूत शिल्प है। सब विषयों का ज्ञान इस शिल्प के द्वारा दिया जाता है । आधुनिक मनोवैज्ञानिक शिक्षा शास्त्रियों द्वारा यह स्वीकार किया गया है कि बालक को शिक्षा का माध्यम किसी उत्पादक कार्य को बनाना चाहिए।
बुनियादी शिक्षा के दोष-
(1) यह योजना विशेष रूप से ग्रामों के लिए ही उचित है नगरों के लिए उचित नहीं है।
(2) इस योजना में उत्पादकता के सिद्धान्त को अधिक महत्त्व दिया गया है जिससे बुनियादी विद्यालय कुटीर उद्योगों में परिणत हो जायेंगे।
(3) यह युग विज्ञान का युग है। ऐसे युग में कताई बुनाई के मध्यकालीन उपदेश देन से भारत की औद्योगिक प्रगति रुक जायेगी।
(4) बेसिक शिक्षा में किसी हस्तकला के द्वारा सब विषयों की शिक्षा प्रदान करना । असम्भव है। समन्वय सहज और स्वाभाविक होना चाहिए।
(5) यह शिक्षा आत्म निर्भर नहीं हो सकती क्योंकि इसमें अपव्यय बहुत अधिक होगा। विद्यार्थी अधिक साधनों को बेकार कर देते हैं। इस योजना से विद्यार्थी की फीस और पुस्तका का भी व्यय पूरा नहीं होता फिर शिक्षकों का वेतन मिलना तो बहुत कठिन बात हैं।
(6) बेसिक शिक्षा में धार्मिक शिक्षा को कोई स्थान नहीं दिया गया है। बालकों की नैतिक एवं चारित्रिक उन्नति के लिए इस प्रकार की शिक्षा की आजकल बहुत आवश्यकता है।
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