UP Board Solutions for Class 12 Sahityik Hindi गद्य Chapter 5 प्रगति के मानदण्ड
कक्षा 12 हिंदी
पाठ- 5 प्रगति के मानदंड (पंडित दीनदयाल उपाध्याय)
बहुविकल्पीय प्रश्न
1.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म कब हुआ था?
(i)1913
(ii)1914
(iii)1915
(iv)1916
उत्तर-1916
2.
पंडित दीनदयाल जी के पिता का क्या नाम था?
(i)
अंबिका प्रसाद
(ii)
भगवती प्रसाद उपाध्याय
(iii)
कालीचरण सिंह
(iv)
पंडित दीनानाथ सिंह
उत्तर-भगवती
प्रसाद उपाध्याय
3.
पंडित दीनदयाल जी की माता का क्या नाम था?
(i)
हेमरानी देवी
(ii)
रामप्यारी
(iii)
मनरूप देवी
(iv)
जगरानी देवी
उत्तर-रामप्यारी
4.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की मृत्यु कब हुई थी?
(i)1965
(ii)1966
(iii)1967
(iv)1968
उत्तर-1968
लेखक संबंधी प्रश्न
1.पंडित
दीनदयाल उपाध्याय जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए।
2.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का साहित्यिक परिचय देते हुए इनकी भाषा शैली लिखिए।
3.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के साहित्य का स्थान बताइए।
जीवन परिचय:
दीनदयाल
उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को जयपुर जिले के धानक्या नामक ग्राम में नाना चुन्नीलाल
के यहां हुआ था। इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था। ये नगला चंद्रभान (फरह,
मथुरा) के निवासी थे। माता रामप्यारी धार्मिक प्रवृत्ति की थी। पिता रेलवे में जलेसर
रोड स्टेशन पर सहायक स्टेशन मास्टर थे।
3
वर्ष की मासूम उम्र में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गए। पति की मृत्यु से मां
रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगी। उन्हें छयरोग
लग गया। 8 अगस्त, 1924 को रामप्यारी जी का देहावसान हो गया। 7 वर्ष की कोमल अवस्था
में दीनदयाल माता पिता के प्यार से वंचित हो गए। माता-पिता की मृत्यु के बाद इनका पालन-पोषण
उनके नाना के यहां हुआ।
साहित्यिक परिचय:
उपाध्याय
जी ने पिलानी, आगरा तथा प्रयाग में शिक्षा प्राप्त की। बीएससी, बीटीसी करने के बाद
उन्होंने नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता
हो गए थे। अतः कॉलेज छोड़ने के तुरंत बाद वे उक्त संस्था के प्रचारक बन गए और एकनिष्ठ
भाव से संघ का संगठन कार्य करने लगे। उपाध्याय जी नितांत सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति
थे। सन 1951 ईस्वी में अखिल भारतीय जन संघ का निर्माण होने पर वे उसके संगठन मंत्री
बनाए गए। 2 वर्ष बाद सन 1953 ईसवी में उपाध्याय जी अखिल भारतीय जन संघ के महामंत्री
निर्वाचित हुए और लगभग 15 वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की।
कालीकट अधिवेशन (दिसंबर 1967) में वे अखिल भारतीय जन संघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
11 फरवरी 1968 की रात में रेल यात्रा के दौरान मुगलसराय के आसपास उनकी हत्या कर दी
गई।
कृतियां (रचनाएं)-
श्री
भाऊराव देवरस से प्रेरणा पाकर सन 1947 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने लखनऊ में
"राष्ट्रधर्म प्रकाशन" स्थापित किया जिसके अंतर्गत मासिक पत्रिका "राष्ट्रधर्म"
प्रकाशित एवं प्रसारित की जाने लगी। बाद में "पांचवान्य " साप्ताहिक और दैनिक
समाचार पत्र "स्वदेश" का भी प्रकाशन यहां से हुआ। प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य
हिंदू विचारधारा को बढ़ावा देना था।
आपको
जानकर आश्चर्य होगा कि यह सभी प्रकाशन आज तक चल रहे हैं। "पांचजन्य" दिल्ली
से तो "स्वदेश" और "राष्ट्र धर्म" लखनऊ से प्रकाशित होते हैं।
स्वदेश का नाम अब बदलकर "तरुण भारत" कर दिया गया है।
संस्कृत
निष्ठा दीनदयाल जी के द्वारा निर्मित राजनैतिक जीवन दर्शन का पहला सूत्र है उनके शब्दों
में- "भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की
भावना रखने वाला मानव समूह एक जन है। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय
संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा
रहे तभी भारत एकतत्व रहेगा।
"वसुधैवकुटुंबकम" हमारी सभ्यता से प्रचलित है। इसी के अनुसार
भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त है।
संस्कृति
से किसी व्यक्ति, वर्ग, राष्ट्रवादी की वे बातें जो उनके मन, रुचि, आचार, विचार, कला-कौशल
और सभ्यता की सूचक होती है, उन पर विचार होता है। 2 शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने
की शैली है। भारतीय सरकारी राज्य पत्र (गजट) इतिहास व संस्कृति संस्करण में यह स्पष्ट
वर्णन है कि हिंदुत्व और हिंदूइज्म एक ही शब्द है जो भारत की संस्कृति और सभ्यता के
सूचक हैं।
उपाध्याय
जी पत्रकार तो थे ही चिंतक और लेखक भी थे। उनकी असामयिक मृत्यु से एक बात तो स्पष्ट
हो जाती है कि जिस धारा में वे भारतीय राजनीति को ले जाना चाहते थे वह धारा हिंदुत्व
की थी। तभी तो कालीकट अधिवेशन के बाद विश्व भर के मीडिया का ध्यान उनकी ओर गया। उनकी
कुछ प्रमुख पुस्तकों के नाम नीचे दिए गए हैं-
दो योजनाएं
राजनैतिक डायरी
भारतीय अर्थ नीति का अवमूल्यन
सम्राट चंद्रगुप्त
जगद्गुरु शंकराचार्य
एकात्म मानववाद
राष्ट्र जीवन की दिशा
एक प्रेम कथा
गद्यांश पर आधारित प्रश्न-
1.
जन्म लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भरण-पोषण की, उसके शिक्षण की जिससे वह समाज के
एक जिम्मेदार घटक के नाते अपना योगदान करते हुए अपने विकास में समर्थ हो सके, उसके
लिए स्वस्थ एवं क्षमता की अवस्था में जीविकोपार्जन की, और यदि किसी भी कारण वह संभव
ना हो तो भरण पोषण की तथा उचित अवकाश की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी समाज की है। प्रत्येक
सभ्य समाज इसका किसी ना किसी रूप में निर्वाह करता है। प्रगति के यही मुख्य मानदंड
है। अता न्यूनतम जीवन स्तर की गारंटी, शिक्षा, जीविकोपार्जन के लिए रोजगार, सामाजिक
सुरक्षा और कल्याण को हमें मूलभूत अधिकार के रूप में स्वीकार करना होगा।
(i)
उपयुक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii)
रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii)
व्यक्ति के भरण-पोषण की जिम्मेदारी समाज की होने का क्या कारण है?
(iv)
प्रगति के मुख्य मानदंड क्या है?
(v)
उपयुक्त गद्यांश का आशय स्पष्ट कीजिए।
(vi)
लेखक की दृष्टि में सभ्यसमाज के क्या दायित्व है?
(vii)
"घटक" तथा "मानदंड"शब्द का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(viii)
लेखक की दृष्टि में मूलभूत अधिकार क्या है?
उत्तर-
(i)
प्रस्तुत गद्दावतरण हमारी पाठ्यपुस्तक के गद्द-भाग में संकलित एवं विलक्षण बुद्धि,
सरल व्यक्तित्व के स्वामी पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा रचित "सिद्धांत और नीति"
से उद्धत "प्रगति के मानदंड" शीर्षक से अवतरित है।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-
लेखक
कहता है कि न्यूनतम जीवन स्तर की गारंटी उसके साथ शिक्षा और जीवन यापन करने के लिए
रोजगार तथा समाज में स्वयं को व समाज सुरक्षा और उसके कल्याण को हमें मुख्य अधिकार
बढ़ता है कि वह अपना और अपने साथ समाज की भलाई का पूर्ण ध्यान रखें।
(iii)
व्यक्ति के भरण-पोषण की जिम्मेदारी समाज की इसलिए है जिससे वह समाज में अपना पूर्ण
सहयोग करते हुए एक मुख्य साधक के रूप में स्वयं को सक्षम बनाने में समर्थ हो सके।
(iv)
जो समाज व्यक्ति के भरण-पोषण से लेकर उसे समाज में एक जिम्मेदार घटक के रूप में समर्थ
करता है, वही प्रगति के मुख्य मानदंड है।
(v)
प्रस्तुत गद्यांश का आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारियों को समाज को मूलभूत
अधिकार के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
(vi)
लेखक की दृष्टि में प्रत्येक व्यक्ति के भरण पोषण, शिक्षा ,जीविकोपार्जन और उचित अवकाश
की व्यवस्था का दायित्व सभ्य समाज का है
(vii)
यहां "घटक" का आशय- समाज के अंग के रूप में उस व्यक्ति से हैं जो समाज की
प्रगति और विकास के लिए उत्तरदाई है।
"मानदंड"
का आशय- उस कसौटी या लक्षण से है, जिसके आधार पर किसी समाज की प्रगति की समुचित रूप
से जानकारी प्राप्त होती है।
(viii)
लेखक की दृष्टि में न्यूनतम जीवन स्तर की गारंटी, शिक्षा, जीविकोपार्जन हेतु रोजगार,
सामाजिक सुरक्षा और जन-कल्याण के कार्य: हमारे मूलभूत अधिकार हैं।
2.
भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा लेकर चलने वाले भी कुछ राजनीतिक दल हैं। किंतु वे
भारतीय संस्कृति की समानता को उसकी गति हीनता समझ बैठे हैं और इसलिए बीते युग रूढ़ियों
अथवा यथास्थिति का समर्थन करते हैं। संस्कृति के क्रांतिकारी तत्व की ओर उनकी दृष्टि
नही जाती। वास्तव में समाज में प्रचलित अनेक कुरीतियां; जैसे-छुआछूत, जाति-भेद, दहेज,
मृत्युभोज, नारी-अवमानना आदि भारतीय संस्कृति और समाज के स्वास्थ्य के सूचक नहीं बल्कि
रोग के लक्षण है। भारत के अनेक महापुरुष, जिनकी भारतीय परंपरा और संस्कृति के प्रति
अनन्य निष्ठा थी इन बुराइयों के विरुद्ध लड़े।
(i)
उपयुक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii)रेखांकित
अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii)
भारतीय संस्कृति के रोग के लक्षण क्या है?
(iv)हमारी
सांस्कृतिक चेतना के क्षीण होने का क्या कारण है।
(v)
रूढ़ियों का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों की दृष्टि किस ओर नहीं जाती?
(vi)
भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा रखने वाले कौन हैं?
उत्तर-
(i)
पूर्ववत।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-
हमारे
देश (भारत) में जितने भी राजनीतिक दल है उनमें से ज्यादातर राजनीतिक दल पश्चिमी संस्कृति
और उनके विचारों का अनुसरण करते हैं जिससे भारतीय समस्याओं का निदान कदापि नहीं हो
सकता, लेकिन कुछ राजनीतिक दल ऐसे भी हैं जो भारतीय संस्कृति की निष्ठा को लेकर चलते
तो हैं, लेकिन उसका वास्तविक मर्म का अर्थ भी नहीं समझ पाते। वे भारतीय संस्कृति की
परंपरानिष्ठ प्राचीन विचारधारा को उसकी कमजोरी समझ बैठे हैं। इसीलिए उसकी प्राचीन कमियों
को उजागर करते हैं और उन्हीं के समर्थक हैं। उन्हें अपनी संस्कृति के मूल तत्व की जानकारी
ही नहीं है।
(iii)
समाज में प्रचलित कुरीतियों जैसे- छुआछूत, जाति भेद, दहेज, मृत्यु भोज, नारी- अवमानना
आदि भारतीय संस्कृति के रोग के लक्षण है।
(iv)
हमारे सांस्कृतिक चेतना के क्षीण होने का कारण युगानुकूल परिवर्तन और परिवर्धन की कमी
से बनी हुई रूढ़ियां, परकियों के साथ संघर्ष की परिस्थिति से उत्पन्न मांग को पूरा
करने के लिए अपनाए गए अथवा परकियों द्वारा थोपी गई या उनका अनुकरण कर स्वीकार की गई
व्यवस्थाएं मात्र हैं।
(v)
रूढ़ियों का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों की दृष्टि भारतीय संस्कृति के क्रांतिकारियों
की ओर नहीं जाती।
(vi)
भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा रखने वाले देश के कुछ प्रमुख राजनीतिक दल है।
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