एकता की तलाश में विपक्षी दल || Ekta ki talash Mein vipakshi dal
भाजपा को केंद्र की सत्ता से हटाने का दम भर रहे विपक्षी दलों की पटना में जो बैठक हुई, वह किसी ठोस नतीजे पर पहुंचती नहीं दिखी। इस बैठक में इतना ही तय हुआ कि सभी दल मिलकर आम चुनाव लड़ेंगे, लेकिन आम आदमी पार्टी जिस तरह साझा प्रेस कांफ्रेंस से दूर रही, उससे यदि कुछ स्पष्ट हुआ तो यही कि विपक्षी एकता की राह आसान नहीं। आम आदमी पार्टी की ओर से यह भी कह दिया गया कि आगे विपक्षी एकता की जिस बैठक में कांग्रेस शामिल होगी, उसमें वह शामिल नहीं होगी। आने जो भी हो, आम आदमी पार्टी विपक्षी एकता के लिए कोई बहुत अधिक इच्छुक नहीं। इसका कारण यह है कि दिल्ली के बाद पंजाब में सरकार बनाने और राष्ट्रीय दल का दर्जा पाने के उपरांत उसे लग रहा है कि वह कांग्रेस का स्थान ले सकती है। वह उसके ही जनाधार में सेंध लगा रही है। फिलहाल उसकी प्रथामिकता मात्र इतनी है कि दिल्ली सरकार की सेवाओं
को लेकर केंद्र सरकार जो अध्यादेश लेकर आई है, उसका कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल विरोध करें। कांग्रेस के लिए ऐसा करना आसान नहीं, क्योंकि आम आदमी पार्टी दिल्ली, पंजाब समेत अन्य राज्यों में उसकी ही जड़ें काट रही है। जैसी प्राथमिकता उसकी है, वैसी ही कुछ अन्य दलों की भी। ममता बनर्जी भी समय-समय पर अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट करती रही हैं। उन्हें यह रास नहीं आ रहा कि कांग्रेस बंगाल में वाम दलों के साथ रहे। कुछ अन्य क्षेत्रीय दल भी यह चाह रहे हैं कि कांग्रेस उनके राज्य से या दूर रहे या फिर कम से कम सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़े। यह कांग्रेस को शायद ही स्वीकार हो ?
विपक्षी दलों ने यह तय किया है कि उनकी अगली बैठक शिमला में होगी और उसमें तय होगा कि कौन कहां से चुनाव लड़ेगा? यह तय करना आसान नहीं, क्योंकि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस को यह लग रहा है कि वह अपना खोया हुआ जनाधार फिर से हासिल कर रही है। विपक्षी एकता की यह पहली ऐसी कोशिश है, जिसमें क्षेत्रीय दल अपने साथ खड़े होने वाले राष्ट्रीय दल यानी कांग्रेस की कुर्बानी चाहते हैं। वे विपक्षी एकता की कमान अपने हाथ में क केवल रखना ही नहीं चाह रहे हैं, बल्कि क यह भी बता रहे हैं कि कांग्रेस को क्या य करना चाहिए और क्या नहीं?
पटना में जुटे विपक्षी दल यही दोहराते रहे कि मोदी को हटाना है। आखिर यह कोई एजेंडा कैसे हो सकता है? उनके त्र पास इस सवाल का जवाब नहीं कि मोदी को हटाकर करना क्या है? विपक्षी दलोंने यह भी दोहराया कि मोदी सरकार के कारण लोकतंत्र और संविधान खतरे में है। जहां राहुल गांधी ने अपना यह घिसा-पिटा बयान दोहराया कि भाजपा और संघ देश की नींव पर आक्रमण कर रहे हैं, वहीं नीतीश कुमार ने मोदी सरकार पर देश का इतिहास बदलने का आरोप लगाया। कुछ इसी तरह की बातें अन्य दलों के नेताओं ने कीं। किसी ने ईडी और सीबीआइ की सक्रियता का रोना रोया तो किसी ने यह आशंका जताई कि यदि भाजपा 2024 में फिर सत्ता में आ गई तो आगे चुनाव ही नहीं होंगे यानी भारत में लोकतंत्र अ खत्म हो जाएगा। क्या यह वही बात नहीं, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत उ विरोधी शक्तियां कर रही हैं? भेड़िया आया- भेड़िया आया की तरह से लोकतंत्र खत्म हो जाने का जो शोर मचाया जा स रहा, उसका औचित्य समझना इसलिए क कठिन हैं, क्योंकि देश के एक दर्जन से ए अधिक राज्यों में गैर भाजपा दल सत्ता में ही हैं। अभी हाल में कांग्रेस ने हिमाचल और न्य 'कर्नाटक में विधानसभा चुनाव जीते हैं।
यदि मोदी लोकतंत्र खत्म करने में जुटे हैं, । जैसा कि विपक्षी दल दावा कर रहे हैं तो फिर विभिन्न राज्यों में गैर भाजपा दल सत्ता में कैसे हैं? क्या लोकतंत्र इसलिए खतरे में है कि भाजपा लगातार दो बार लोकसभा चुनाव जीत गई? क्या लोकतंत्र 5 तब खत्म हो गया था, जब कांग्रेस लगातार केंद्र की सत्ता में रहती थी? क्या विपक्षी दल यह कहना चाहते हैं कि उनके केंद्र की सत्ता में आ जाने से लोकतंत्र मजबूत हो जाएगा?"
विपक्षी दल कुछ भी दावा करें, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मिली- जुली सरकारें किस तरह राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करती रही हैं या फिर सहयोगी दलों के अनुचित दबाव और कभी-कभी तो ब्लैकमेलिंग का शिकार होती रही हैं? साझा सरकारें राजनीतिक अस्थिरता का कारण भी बनती रही हैं। विपक्षी दल एकजुट होकर साझा सरकार बनाने की ही कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वे कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम देने में नाकाम हैं। न्यूनतम साझा कार्यक्रम के नाम पर
उनके पास कुछ है तो केवल यही कि मोदी को हटाना है। समस्या यह भी है कि उनके पास राष्ट्रीय दृष्टिकोण का अभाव है। राष्ट्रीय मुद्दों से अधिक वे क्षेत्रीय मुद्दों को अहमियत देते हैं। कई बार तो इतना अधिक कि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे उनकी प्राथमिकता से बाहर हो जाते हैं। विपक्षी दल देश की जनता का ध्यान खींचने वाला कोई विमर्श भी नहीं गढ़ पा रहे हैं। इस कोशिश में वे हास्यास्पद काम कर बैठते हैं, जैसे कि संसद के नए भवन के उद्घाटन का बहिष्कार। उन्हें कुछ और नहीं सूझता तो कभी वे सेंगोल के पीछे पड़ जाते हैं तो कभी गीताप्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देने का विरोध करने लगते हैं। उनका एक राग यह भी है कि अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। यह वही बेसुरा राग है, जो पाकिस्तान अलापता रहता है। राहुल गांधी तो कई बार ऐसे बयान भी दे देते हैं.. जो चीन और पाकिस्तान को अधिक रास आते हैं।
विपक्षी एकता की कोशिश इसके पहले भी हुई है, लेकिन अभी तक का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा। विपक्षी दल चुनाव के समय एकजुट होने की कोशिश करते हैं और फिर बिखर जाते हैं। इस प्रक्रिया में वे पाला भी बदल लेते हैं। उद्धव ठाकरे की शिवसेना आज विपक्ष में है और खुद को सेक्युलर बताने में लगी हुई है। कुछ यही हाल जनता दल यूनाइटेड का है। क्या यह विचित्र नहीं कि लंबे समय तक भाजपा के सहयोग से सत्ता में रहे नीतीश कुमार आज विपक्षी एकता के सबसे बड़े पैरोकार हैं?
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