इतिहास को राजनीति से बचाएं || Itihaas ko rajniti se bachayen
स्कूली बच्चों के लिए पाठ्यपुस्तक केवल अध्ययनशील, विचारवान, अनुभवी और जीवन तथा परिवर्तन के प्रति वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति द्वारा ही लिखी जानी चाहिए। राजनीति या राजनीतिक प्रतिबद्धता वाले लोग भले ही शैक्षिक पदों पर विद्यमान हों, उच्च श्रेणी का शोध कर रहे हों, पाठ्यपुस्तक लिखने से उनका दूर रहना ही राष्ट्रहित में होगा। लोकतंत्र में पाठ्यपुस्तक लेखकों का ही नहीं, जनप्रतिनिधियों का भी यह शाश्वत उत्तरदायित्व है कि बच्चों को किसी राजनीतिक अवधारणा के प्रति प्रेरित कराने का प्रयास न किया जाए, उन्हें केवल वस्तुनिष्ठ जानकारी प्रदान की जाए। हालांकि ऐसा वह व्यक्ति कतई नहीं कर सकता है, जो राजनीतिक दलों से संबंद्ध हो या रहा हो, दल बदलता रहा हो और इसके बाद भी नैतिकता की बात करता हो। पाठ्यपुस्तकों को लेकर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद यानी एनसीईआरटी पर जब राजनीति से प्रेरित आक्रमण होते हैं, तब सत्य तो यही उभरता है कि यह स्वार्थ प्रेरित हैं और एक राष्ट्रीय संस्था की साख पर बट्टा लगाने के कुत्सित प्रयास हैं।
एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों के निर्माण और स्कूली शिक्षा के विभिन्न आयामों पर शोध के क्षेत्र में राष्ट्र की अग्रणी संस्था है। इसका पाठ्यपुस्तकों के निर्माण और उनमें सुधार का छह दशकों से अधिक का अनुभव है। इसकी अपनी साख और स्वीकार्यता है। इस साख के बनने में अनेकानेक विद्वानों के साथ ही उन प्राध्यापकों, विद्वानों और शोधकर्ताओं का भी बड़ा योगदान रहा, जिन्हें वामपंथी मार्क्सवादी खेमे का माना जाता रहा है। इनका शिक्षा संस्थानों और उनके सभी कार्यकलापों और नियुक्तियों तक पर चार दशक से अधिक समय तक पूर्ण वर्चस्व रहा है। केवल वर्ष 1998 से 2004 और वर्ष 2014 से वर्तमान दौर में ही यह वर्ग इस विशेषाधिकार से वंचित रहा। इससे उनमें घनघोर आक्रोश, ईर्ष्या और आक्रामकता का उभरना स्वाभाविक है। लोकतंत्र में भी जो लोग सत्ता या संस्थानों पर आधिपत्य पा जाते हैं वे अक्सर यह मान लेते हैं कि वहां बने रहने का अधिकार केवल उनका या उनके परिवारजनों का ही है। जिन लेखकों की पुस्तकें दो-तीन दशक से देश के स्कूलों में चल रही थीं, वे इस संभावना से ही
उत्तेजित हो गए कि कोई अन्य लोग उनका स्थान ले सकते हैं या पाठ्यपुस्तकें बनाने का दुस्साहस कर सकते हैं। आज एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों से कुछ अंश हटाने को लेकर कुछ विद्वानों ने अपनी नाराजगी जाहिर की है। अवार्ड वापसी की जानी-पहचानी तर्ज पर कहा है कि उनके नाम इन पाठ्यपुस्तकों से हटा दिए जाएं। संभव है ये लोग वह मानदेय भी वापस कर दें, जो एनसीईआरटी से प्राप्त किया होगा। एनसीईआरटी को इनका अनुरोध तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिए।
इस समय जो हो रहा है उसमें नया कुछ नहीं है, वह तो अपेक्षित ही था। वर्ष 1999 से 2004 के. मध्य भी एनसीईआरटी के विरुद्ध एक राजनीति- प्रेरित अभियान चलाया गया था। पुस्तकों में बदलाव से पहले पाठ्यचर्या (करिकुलम ) बनाना, फिर पाठ्यक्रम (सिलेबस) और फिर पुस्तक निर्माण का क्रम अपनाया जाता है। 28 सितंबर, 2001 को दिल्ली विधानसभा में एनसीईआरटी के विरुद्ध एक प्रस्ताव पास किया गया कि उसकी नई पुस्तक में गुरु तेग बहादुर साहिब के संबंध में जो अत्यंत अपमानजनक तथा आधारहीन वर्णन है और उसे तुरंत हटा दिया जाए। यह किताब नई नहीं थी, दशकों पुरानी पुस्तक का ही पुनर्मुद्रण था, लेकिन एनसीईआरटी ने इस पर ध्यान दिया,
इतिहासकारों से चर्चा की और उस आधार पर सीबीएसई से कुछ अंश न पढ़ाए जाने का अनुरोध किया। आलोचना किस कदर आंख मूंदकर की जाती है, यह उसका ही एक उदाहरण है।
राजनीति और विचारधारा से जकड़ा हुआ पाठ्यपुस्तक लेखन भावी पीढ़ियों के साथ कितना अन्याय करता है इसे समझने के लिए एनसीईआरटी द्वारा कक्षा ग्यारह की इतिहास की 2001 में पुनर्मुद्रित पुस्तक पढ़ें। लेखक गुरु के बलिदान और उसके पीछे की दृढ़ता को बिल्कुल भी वर्णित नहीं करता है। वह तो औरंगजेब की क्रूरता और मतांधता पर पर्दा डालने से भी नहीं हिचकता है। गुरु तेग बहादुर साहिब के मासूम बच्चों के साथ जो क्रूरता की गई और उन बच्चों ने मतांतरण न करने में जो साहस दिखाया उस पर भी लीपापोती का पूरा प्रयास किया गया। मई 2004 के बाद यही पुरानी पुस्तकें वापस लाई गई। नई सारी की सारी हटा दी गई। यह कैसी विडंबना है कि स्वतंत्र भारत के 75 साल पूरे होने के बाद ही गुरु तेग बहादुर साहिब का और उनके सुपूतों को ठीक ढंग से पहचाना गया और वीर बाल दिवस मनाने की परंपरा प्रारंभ की गई है। खिलवाड़ केवल सिख गुरुओं के योगदान से ही नहीं किया गया, बल्कि जैन और जाट समाज के संबंध में भी इतिहास को कुछ यों तोड़ा मरोड़ा गया जो सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल किए गए उस शपथपत्र की याद दिलाता है जिसमें राम के अस्तित्व को पूरी तरह नकार दिया गया था। इसे जब वर्ष 2001 में हटाया गया तो वह भगवाकरण कहा गया, लेकिन जो लोग इसे मई 2004 में वापस लाए, उन्होंने दो-तीन वर्ष बाद हरियाणा के विधानसभा चुनावों में जाट समुदाय के घोर विरोध के कारण इसे फिर से हटा दिया। आम लोगों के लिए यह सब समझ पाना सरल नहीं है, लेकिन इतना तो सभी जान सकते हैं कि यह इतिहास वस्तुनिष्ठ इतिहास नहीं था। एनसीईआरटी को लगातार विद्वानों, नागरिकों तथा संस्थाओं से तथ्यात्मक सुधार करने के अनुरोध और प्रतिवेदन मिलते रहे, लेकिन जाने- माने वामपंथी-मार्क्सवादी तत्वों ने कोई सुधार होने ही नहीं दिया। अब इतिहास में सुधार हो रहा है तो यही लोग एक बार फिर शोर मचा रहे हैं।
Q. राजनीति इतिहास क्या है?
राजनीति का इतिहास अति प्राचीन है जिसका विवरण विश्व के सबसे प्राचीन सनातन धर्म ग्रन्थों में देखनें को मिलता है । राजनीति कि शुरुआत रामायण काल से भी अति प्राचीन है। महाभारत महाकाव्य में इसका सर्वाधिक विवरण देखने को मिलता है । चाहे वह चक्रव्यूह रचना हो या चौसर खेल में पाण्डवों को हराने कि राजनीति ।
Q. भारत की राजनीति क्या है?
भारत एक संघीय संसदीय, लोकतांत्रिक गणतंत्र हैं, भारत एक द्वि-राजतन्त्र का अनुसरण करता हैं, अर्थात, केन्द्र में एक केन्द्रीय सत्ता वाली सरकार और परिधि में राज्य सरकारें।
Q. इतिहास और राजनीति विज्ञान आपस में कैसे संबंधित हैं?
राजनीति विज्ञान इतिहास से गहराई से जुड़ा हुआ है क्योंकि अतीत के पैटर्न भविष्य का संकेत देते हैं । वर्तमान को समझने और भविष्य की भविष्यवाणी करने के लिए अतीत की घटनाओं का अध्ययन करने और उन्हें भविष्य में विस्तारित करने से बेहतर कोई मार्गदर्शक नहीं हो सकता है।
Q. इतिहास हमारे लिए क्यों जरूरी है?
इतिहास का ज्ञान न केवल हमें वर्तमान की बेहतर समझ देता है बल्कि भविष्य की ओर भी संकेत करता है। इनके अलावा हमारे लिए यह ज्ञान भी आवश्यक है कि आज हम जिन संस्थाओं को देखते हैं, उनकी जड़ें कहाँ हैं। पहले इतिहास के अध्ययन का अर्थ शासक वर्ग का अध्ययन माना जाता था या फिर इसे किसी महान व्यक्ति के जीवन की गाथा मानी जाती थी।
Q. इतिहास का पिता कौन है?
इतिहास का जनक हेरोडोटस को कहा जाता है।
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