पुरुष आयोग बनाने की मांग || Purush Aayog Banane ki Mang

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पुरुष आयोग बनाने की मांग || Purush Aayog Banane ki Mang

पुरुष आयोग बनाने की मांग || Purush Aayog Banane ki Mang

पुरुष आयोग बनाने की मांग,Purush Aayog Banane ki Mang


पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने पुरुष आयोग का गठन करने की मांग वाली याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इसमें एकतरफा तस्वीर पेश की गई है। याचिका में मांग की गई थी कि जो पुरुष पत्नियों द्वारा घरेलू हिंसा से पीड़ित हैं, उन्हें न्याय देने के लिए एक विस्तृत दिशानिर्देश जारी हो और राष्ट्रीय पुरुष 'आयोग बनाया जाए। इंटरनेट मीडिया पर हमें अक्सर ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि पत्नियों के हाथों पिटने वाले पतियों के मामले में भारत विश्व में तीसरे स्थान पर है। हालांकि कहा नहीं जा सकता कि इस तरह की खबरों में कितनी सच्चाई है, लेकिन मैं एक पुरुष को जानती हूं, जिन्हें अक्सर उनकी पत्नी पीटती थी। उसने एक बार तो उनका हाथ तक तोड़ दिया था। पत्नियों द्वारा गाली-गलौच एवं मामूली बातों पर दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा के कानूनों का सहारा लेकर न केवल पतियों, बल्कि उनके परिवार वालों को भी कठघरे में खड़ा करना आम बात हो चली है। हम सब इसे जानते भी हैं, लेकिन आंखें मूंदे रहते हैं, क्योंकि समाज में माना जाता है कि अक्सर हिंसा पुरुष करते हैं, स्त्रियां तो सताई हुई होती हैं। उनका कोई अपराध नहीं होता। देखा जाए तो यह अब गए जमाने की बात हो गई है। आज कितने परिवार ऐसे हैं, जो मामूली बातों और झूठे आरोपों के कारण तबाह हो रहे हैं। पुरुषों के लिए काम करने वाले संगठनों के पास ऐसे बेशुमार मामले आते हैं, लेकिन देश .का कानून स्त्रियों को दोषी मानता ही नहीं, इसलिए उनकी सुनवाई नहीं होती।

क्या किसी भी समाज में ऐसा कभी संभव है कि सौ प्रतिशत पुरुष दोषी हों और सौ प्रतिशत स्त्रियां निर्दोष, लेकिन जैसे ही ये बातें बहस में आती हैं, बहुत आसानी से महिला विरोधी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है। अगर न्याय वाकई सबकी सुनता है, सबकी रक्षा करता है तो आखिर उसे पुरुषों की क्यों नहीं सुननी चाहिए? क्या वे इस देश के नागरिक नहीं, मतदाता नहीं हैं? परिवार को चलाने मैं यदि मां की भूमिका होती है तो पुरुष भी तो रात- . दिन मेहनत करते हैं। वे भी तो परिवार की जरूरतों के लिए कोई कोर-कसर शेष नहीं रखते। ऐसे में उन्हें सिर्फ खलनायक की श्रेणी में रखना बेहद अनुचित और निंदनीय है। अपने देश की मुसीबत

पुरुषों की प्रताड़ना पर भी सुनवाई आवश्यक यही है कि यहां कुछ दबाव समूहों के प्रभाव में आकर कई बार ऐसे कानून बना दिए जाते हैं, जहां दूसरे पक्ष की सुनवाई ही नहीं होती। सुनवाई तो क्या कोई मानने के लिए भी तैयार नहीं होता कि पुरुषों की भी कोई दिक्कतें होती होंगी। जबकि वे भी गरीबी, बेरोजगारी, साधनहीनता, आपसी कलह और पारिवारिक विवाद झेलते हैं। ऐसे में वे जाएं तो जाएं कहां ? अर्से से पुरुष आयोग बनाने की मांग की जा रही है। और की भी क्यों न जाए, क्योंकि लोकतंत्र का यही नियम है कि प्रत्येक को समान रूप से न्याय मिलना चाहिए। हम ऐसा क्यों मानकर बैठ गए हैं कि अन्याय सिर्फ एक पक्ष झेल रहा है? अगर सारी स्त्रियां देवी नहीं होतीं तो सारे पुरुष भी दानव नहीं होते।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार देश में वर्ष 2021 में कुल 1,64,033 लोगों ने आत्महत्या की। आत्महत्या करने वालों में विवाहित पुरुषों की संख्या 81,063 थी। जबकि

महिलाओं की संख्या 28,680 थी। 33.2 प्रतिशत पुरुषों ने पारिवारिक समस्याओं के कारण और 4.8 प्रतिशत ने वैवाहिक कारणों से आत्महत्या की। पुरुषों की आत्महत्या और घरेलू हिंसा से निपटने के लिए मानवाधिकार आयोग को भी निर्देश दिया जाना चाहिए। इसमें कुछ गलत नहीं है, लेकिन सवाल है कि ऐसा होगा कैसे? महिलाएं तो जैसे ही किसी प्रकरण में फंसती हैं, किसी न किसी ऐसे कानून का सहारा ले लेती हैं, जहां पुरुषों की कोई सुनवाई ही नहीं होती। बिना किसी जांच-परख के पुरुषों को दोषी मान लिया जाता है। कानून की यह कैसी प्रक्रिया है, जहां दूसरे पक्ष को अपनी बात कहने और अपने को सही साबित करने का अवसर ही प्रदान ने किया जाए? ध्यान से देखें तो कानून की जद में सिर्फ पति, ब्वायफ्रेंड और उसके घर वाले ही होते हैं। लड़कियों के घर वालों की बातों को सही मान लिया जाता है। रिश्ते में ननद लगने वाली लड़कियों के परिवारों में सिर्फ इसलिए आफत आ जाती है कि भाभियां न केवल उनका, बल्कि उनके पतियों का नाम भी दोषियों में लिखवा देती हैं। अपने यहां के लैंगिक कानून सिर्फ और सिर्फ बहू और युवा स्त्रियों के पक्ष में हैं। इसीलिए 80-80 साल के बुजुर्ग घरेलू हिंसा और दहेज प्रताड़ना के मामले में पकड़ लिए जाते हैं। लड़कों पर आरोप साबित न भी हो पाए तो भी उनका जीवन बर्बाद हो जाता है। वे वर्षों कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते रहते हैं। कुछ की नौकरी चली जाती है और समाज में बदनामी अलग से होती है।


इसी एकपक्षीयता से निपटने के लिए पुरुष आयोग बनाना बहुत आवश्यक हो गया है। वैसे भी जब अपने यहां हर एक की समस्याओं के निपटान के लिए आयोग बना दिए जाते हैं तो पुरुषों के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? इसमें कुछ गलत भी नहीं है। पुरुष आयोग हो तो पुरुषों को भी अपनी बात कहने का अवसर मिले। वे भी न्याय पा सकें। अपने यहां जैसे लैंगिक कानून हैं, उनमें बदलाव की भी सख्त आवश्यकता है। कानून हर पक्ष की बात सुने और जो दोषी हो, चाहे स्त्री या पुरुष उन्हें सजा सभी कानून का महत्व भी सिद्ध हो सकता है और वह सभी को न्याय देने वाला बन सकता है।

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