संकट में पड़ी विपक्षी एकता - UPBoard.live

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संकट में पड़ी विपक्षी एकता - UPBoard.live

 संकट में पड़ी विपक्षी एकता - UPBoard.live

महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार और उनके म भतीजे अजीत पवार के बीच मनमुटाव की जो खबरें आ रही थीं, वे तब सच साबित हुईं, जब अजीत ने अधिकांश विधायकों के साथ विद्रोह कर दिया और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार से जा मिले। जहां अजीत पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली, वहीं राकांपा के आठ विधायकों ने मंत्री पद की। अजीत पवार चुप नहीं बैठेंगे, यह उसी समय तय हो गया था, जब शरद पवार ने उनकी अनदेखी कर बेटी सुप्रिया सुले को राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया था। हालांकि पार्टी में बगावत के बाद शरद पवार कह रहे हैं कि वह अपनी पार्टी को फिर से खड़ा करेंगें, लेकिन फिलहाल ऐसा मुश्किल लगता है, क्योंकि


कई वरिष्ठ नेता अजीत पवार के साथ हैं। इनमें प्रफुल पटेल भी हैं, जो सुप्रिया के साथ कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए थे। | पटेल शरद पवार के विश्वासपात्र और | उनके दाहिने हाथ माने जाते थे, लेकिन

उन्होंने भी अजीत पवार का साथ देना पसंद किया।

राकांपा में टूट से एक बार फिर यह साबित हुआ कि परिवारवादी दल कल्ह और टूट-फूट का शिकार होते ही रहते हैं। यह कोई पहली बार नहीं, जब किसी परिवारवादी दल में टूट हुई हो। ऐसे दलों में ऐसा होता ही रहता है। तेलुगु देसम पार्टी और शिवसेना में टूट हो चुकी है। इसके अलावा डीएमके, लोक जनशक्ति पार्टी और सपा पारिवारिक कलह का शिकार हुई हैं । राकांपा भी इसीलिए टूटी, क्योंकि शरद पवार ने भतीजे अजीत पवार के बजाय बेटी सुप्रिया को महत्व दिया और वह भी इसके बाद कि अजीत कहीं अधिक प्रभावी नेता हैं। परिवारवादी दलों में आम तौर पर टूट-फूट और कलह इसलिए होती है, क्योंकि दल विशेष का मुखिया अपने बेटे या बेटी को ही प्राथमिकता देता है। इस क्रम में परिवार के अन्य सदस्यों के साथ वरिष्ठ नेताओं की भी उपेक्षा होती है और इससे ही असंतोष उपजता है, जो प्रायः टूट का कारण बनता है। अजीत पवार ने इसके पहले भी शरद पवार से बगावत की थी। 2019 में उन्होंने तब भाजपा की सरकार में अचानक उपमुख्यमंत्री की शपथ ले ली थी, जब महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन चल रहा था। तब वह 80 घंटे बाद ही वापस राकांपा में लौट गए थे और उनके साथ मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले देवेंद्र फडणवीस को इस्तीफा देना पड़ा था। कहा जाता है कि तब अजीत पवार को भाजपा के पाले में भेजना शरद पवार की एक चाल थी। सच जो भी हो, इस घटनाक्रम से भाजपा की अच्छी-खासी किरकिरी हुई थी। इसी घटनाक्रम के कुछ समय बाद

शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई। यह सरकार शिवसेना के एकनाथ शिंदे की बगावत के चलते गिर गई थी। अजीत पवार की मानें तो राकांपा के अधिकांश विधायक पहले से ही इस मत के थे कि भाजपा के साथ सरकार में शामिल हुआ जाए, लेकिन शरद पवार के आगे उनकी एक नहीं चली। बाद में राकांपा और कांग्रेस ने अपनी धुर विरोधी शिवसेना से हाथ मिलाकर महाविकास आघाड़ी का गठन किया और सत्ता में आए। इस सरकार के गिरने के बाद शिवसेना और कांग्रेस के साथ राकांपा के विधायक भी सत्ता से वंचित हो गए। हो सकता है कि अजीत पवार इस बार इसलिए ज्यादातर विधायकों को अपने साथ लेने में सफल रहे, क्योंकि उनमें से अनेक बड़े कारोबारी हैं और उन्हें सत्ता का साथ-संरक्षण तमाम सहूलियत देता है।

अपनी पार्टी में बगावत के बाद शरद पवार भले ही खुद को असली राकांपा बता रहे हों, लेकिन फिलहाल अजीत पवार का पलड़ा भारी लग रहा है। पार्टी

पर कब्जे को लेकर चाचा-भतीजे के बीच की कानूनी लड़ाई का नतीजा जो भी हो, देवेंद्र फडणवीस ने अजीत पवार के साथ मिकलर शरद पवार को उनके ही खेल में मात दे दी। एक तरह से वही असली चाणक्य साबित हुए। अजीत पवार और एनसीपी के विधायकों को 'भाजपा की तरफ मोड़ने में फडणवीस की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही। राकांपा में बगावत के बाद फडणवीस महाराष्ट्र की राजनीति में एक सशक्त राजनीतिज्ञ के रूप में उभर आए हैं। वह हैं तो उपमुख्यमंत्री, लेकिन महाराष्ट्र के सबसे कद्दावर नेता बन गए हैं।

शरद पवार को एक ऐसे समय झटका लगा है, जब वह कांग्रेस को साथ लेकर विपक्षी एकता की पहल करने में लगे हुए थे। हैरानी नहीं कि इस विपक्षी एकता के जरिये वह प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हों, क्योंकि विपक्ष के नेताओं में वह सबसे अनुभवी और वरिष्ठ हैं। वह विपक्षी दलों की पटना बैठक में शामिल हुए थे। उनके साथ प्रफुल पटेल भी थे।

साफ है कि प्रफुल पटेल दिखावे के लिए पटना की बैठक में उपस्थित थे। उनके अजीत पवार के साथ चले जाने से शरद पवार कहीं अधिक कमजोर हो गए हैं। वास्तव में महाराष्ट्र मैं पूरा विपक्षी मोर्चा ही कमजोर हो गया है। पहले शिवसेना में विभाजन में हुआ और अब राकांपा में।, महाराष्ट्र कांग्रेस में भी जनाधार वाले नेता या तो उपेक्षित हैं या फिर निष्क्रिय।

महाराष्ट्र में भले ही सरकार का नेतृत्व शिंदे गुद वाली शिवसेना के एकनाथ शिंदे कर रहे हों, लेकिन अब भाजपा की उस पर निर्भरता कम हो गई है। शायद इसी कारण उसके नेताओं में बेचैनी दिख रही है। महाराष्ट्र में भाजपा यकायक सबसे सशक्त नजर आने लगी है। अब उसके साथ शिंदे गुट वाली शिवसेना भी है और अजीत पवार वाली राकांपा भी । यदि ये तीनों दिल मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ते हैं तो भाजपा सबसे अधिक फायदे में रह सकती है। ध्यान रहे लोकसभा चुनाव की दृष्टि से महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश के बाद सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश है। यहां लोकसभा की 48 सीटें हैं। भाजपा यही चाहेगी कि वह और उसके सहयोगी दल ज्यादा से ज्यादा से लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करें। आज के दिन उसका यह लक्ष्य आसान दिख रहा है। महाराष्ट्र में राकांपा को जो आघात लगा, उसका असर विपक्षी एकता पर भी पड़ेगा। विपक्षी दलों की बेंगलुरु में जो बैठक होने जा रही है, उसमें महाराष्ट्र का राजनीतिक घटनाक्रम छाया रहे तो हैरानी नहीं। विपक्षी दल जो भी दावा करें, उनका एकजुट होकर भाजपा को चुनौती देना कठिन होता दिख रहा है।

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