चिकित्सा क्षेत्र में परिवर्तन का समय - Upboard.live
चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में हाल में दो महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव हुए हैं। पहला, देश भर में यूजी यानी एमबीबीएस प्रवेश के लिए कामन काउंसलिंग होगी। दूसरा मध्य प्रदेश सरकार ने पीजी कर रहे डाक्टरों के लिए तीन महीने ग्रामीण क्षेत्रों में एक तरह की इंटर्नशिप को अनिवार्य बना दिया है। दोनों ही निर्णय चिकित्सा शिक्षा को समावेशी बनाने में सहायक होंगे, लेकिन भारत में अभी भी यह क्षेत्र कुछ बड़े निर्णयों के इंतजार में है। बेशक मौजूदा केंद्र सरकार ने चिकित्सा शिक्षा के ढांचे में ऐतिहासिक बदलाव सुनिश्चित किया है, जिसके चलते अब डाक्टरी पेशा अभिजात्य श्रेणी से निकलकर आम भारतीय की पहुंच में आया है, लेकिन जनस्वास्थ्य के मोर्चे पर आज भी देश की आबादी और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के बीच भरोसे का अपेक्षित रिश्ता विकसित नहीं हो सका है।
देश में एमबीबीएस की सीटों की संख्या पिछले नौ वर्षों में 51,348 से बढ़कर 1,01,043 एवं पीजी सीटों की संख्या 31,185 से बढ़ाकर करीब 65 हजार की जा चुकी है। देश में इस समय 654 मेडिकल कालेज हैं, जो 2014 में 387 ही थे। सरकार एक जिला- एक मेडिकल कालेज की परियोजना पर भी तेजी से काम कर रही है। इस बुनियादी सुधार के बावजूद समग्र रूप में सार्वजनिक क्षेत्र की जनस्वास्थ्य सेवाओं के प्रति आम आदमी का भरोसा कमजोर ही बना हुआ है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की पिछली रिपोर्ट बताती है कि देश के 50 प्रतिशत लोग बीमार होने पर सरकारी अस्पतालों में नहीं जाते। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सार्वजनिक अस्पताल विशेषज्ञ चिकित्सकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पंजाब, उत्तराखंड और महाराष्ट्र जैसे राज्यों की स्थिति इस मामले में सबसे खराब है। बिहार में तो 80 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 75 प्रतिशत लोग अपने इलाज के लिए निजी डाक्टरों या अस्पताल में जाने को विवश हैं।
सवाल यह है कि आखिर सार्वजनिक सेवाओं को जनोन्मुखी कैसे बनाया जाए? इसके लिए सबसे बेहतर तरीका यही है कि विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता को सार्वजनिक अस्पतालों में बढ़ाया जाए। इसके लिए हमें इंग्लैंड की स्वास्थ्य सेवाओं का अध्ययन करना चाहिए, जहां पीजी की पढ़ाई
भारत की तरह केवल मेडिकल कालेजों में नहीं होती है। वहां सभी पीजी डाक्टरों को संबंधित स्वास्थ्य केंद्रों पर तैनात किया जाता है और केवल थ्योरी क्लास के लिए मेडिकल कालेज जाना होता है। नतीजतन इंग्लैंड के सरकारी अस्पतालों में हर समय चिकित्सक उपलब्ध रहते हैं। भारत में भी इस प्रयोग को अपनाया जाना चाहिए। देश के सभी मेडिकल कालेजों के पीजी विद्यार्थियों को डिग्री समाप्त होने तक ग्रामीण, कस्बाई या जिला अस्पतालों में पदस्थ किया जा सकता है। इससे सरकारी अस्पतालों में हर समय विशेषज्ञ डाक्टर मिल सकेंगे और पीजी डाक्टरों को भी बेहतर अनुभव हासिल होगा।
ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकीय रिपोर्ट, 2022 कहती है कि देश के 6,064 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र यानी सीएचसी में 83 प्रतिशत सर्जन, 74 प्रतिशत स्त्री रोग विशेषज्ञ, 81.6 शिशु रोग विशेषज्ञ और 79.1 प्रतिशत एमबीबीएस उपलब्ध ही नहीं। 22 नए एम्स सहित केंद्र के अधीन चलने वाले अस्पतालों में भी तीन हजार डाक्टरों एवं 21 हजार पैरा मेडिकल स्टाफ की कमी चिंतित करने वाला पक्ष है। हमारे देश में सरकारी अस्पताल आज भी एलोपैथी डाक्टरों को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं,
क्योंकि करीब 12 लाख कुल में से मात्र 1.5 लाख डॉक्टर ही समग्र सरकारी तंत्र का हिस्सा हैं। इसमें भी आधे डाक्टर तो आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में पंजीकृत हैं। इन चार राज्यों में सर्वाधिक निजी मेडिकल कालेज भी हैं। बेहतर होगा कि मेडिकल कालेजों की संख्या हिंदी क्षेत्र में तेजी के साथ बढ़ाई जाए। मध्य प्रदेश सरकार के तीन महीने के पीजी इंटर्नशिप कार्यक्रम को तीन साल बढ़ाकर नीतिगत रूप से देश भर में सार्वजनिक अस्पतालों के साथ जोड़ा जाना चाहिए। । इसके अलावा करीब डेढ़ लाख एमबीबीएस डाक्टर हर साल पीजी डिग्री के लिए नीट की परीक्षा देते हैं, लेकिन इनमें से एक लाख फेल हो जाते हैं। इसके बाद वे फिर परीक्षा की तैयारियों में जुट जाते हैं। लिहाजा उनके कौशल का देश को कोई फायदा नहीं होता। सरकार इन सभी को सार्वजनिक अस्पतालों के साथ जोड़कर अगले चरण में पीजी वेटेज दे सकती है। हाल में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने देश के शीर्ष निजी अस्पतालों के साथ बैठक कर उनसे एमबीबीएस और पीजी की साथ में पढ़ाई कराने का आग्रह किया है। यह भी डाक्टरों की कमी को पूरा करने का एक बेहतर रास्ता हो सकता है।
अभी हर राज्य का अपना मेडिकल परीक्षा तंत्र है और कहीं भी समय पर मेडिकल कालेजों में 1 परीक्षाएं नहीं हो पाती हैं। कुछ राज्यों में तो एक से डेढ़ साल तक सेमेस्टर विलंब से चलते हैं। यह स्थिति भी अंततः देश के लिए नुकसानदेह ही है। ऐसे में अब समय आ गया है कि देश में एकीकृत | चिकित्सा पाठ्यक्रम हो और नीट की तर्ज पर एक । साथ कालेजों में परीक्षाओं का आयोजन हो, ताकि समय पर डाक्टरों की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके। इस दिशा में एक देश एक परीक्षा और एक पाठ्यक्रम की नीति को राज्यों के साथ मिलकर अपनाया जाना चाहिए। एक साथ परीक्षा से समय पर नतीजे घोषित होंगे और डाक्टरों की उपलब्धता समाज में सुनिश्चित होगी। अभी पाठ्यक्रम के स्तर पर भी विविधता है। जबकि देश के सभी मेडिकल कालेज में एकसमान पाठ्यक्रम में पढ़ाई होनी चाहिए। भाषा के स्तर पर स्थानीयता का ध्यान रखा जा सकता है। इससे शिक्षा की गुणवत्ता में भी होगा।
Q. चिकित्सा की मुख्य प्रणालियां क्या हैं?
भारत ने चिकित्सा की छह प्रणालियों को मान्यता दी है। आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी और योग, प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी ।
Q. भारतीय चिकित्सा पद्धति की 6 प्रणालियां क्या है समझाइए?
'आयुष' चिकित्सा पद्धति
आयुष (AYUSH) का अभिप्राय आयुर्वेद, योगा, यूनानी, सिद्ध एवं होम्योपैथी से है। आयुष मंत्रालय इन सभी स्वास्थ्य प्रणालियों के संवर्द्धन एवं विकास, इन प्रणालियों के माध्यम से आमजन को स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करना तथा इनसे संबंधित चिकित्सा शिक्षा के संचालन का कार्य देखता है।
Q. मुझे भारत में चिकित्सा का अध्ययन क्यों करना चाहिए?
अस्पताल और फार्मास्युटिकल क्षेत्र में एमबीबीएस छात्रों के लिए रोजगार के पर्याप्त अवसर हैं। एमबीबीएस करने के बाद अन्य करियर विकल्प स्नातकोत्तर या डॉक्टरेट की पढ़ाई जैसे मास्टर डिग्री (एमएस) पाठ्यक्रम या चिकित्सा में डॉक्टरेट की डिग्री (एमडी) हो सकते हैं।
Q. चिकित्सा का उद्देश्य क्या है?
प्राथमिक चिकित्सा का उद्देश्य जीवन की रक्षा करना, इसका प्रशिक्षण स्कूलों में दिया जाए फर्स्ट-एड के 3 मुख्य उद्देश्य होते हैं, पहला जीवन संरक्षण। दूसरा स्थिति को अधिक खराब होने से बचाना और तीसरा घायल व बीमारी व्यक्ति को रोग मुक्त होने में सहायता करना।
Q. भारत में कितनी चिकित्सा पद्धति है?
इसका नाम बदलकर आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध एवं होम्योपैथी (आयुष) विभाग रखा गया, जिसे संक्षेप में आयुष कहा गया। भारतीय चिकित्सा पद्धति पर ध्यान केंद्रित करने की सरकार की नीति के मद्देनजर आयुष विभाग को 09.11.2014 से मंत्रालय का दर्जा दिया गया है।
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