शिक्षा में खेलकूद का स्थान पर निबंध / Shiksha mein khel ke mahatva par essay

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शिक्षा में खेलकूद का स्थान पर निबंध / Shiksha mein khel ke mahatva par essay

शिक्षा में खेलकूद का स्थान पर निबंध / Shiksha mein khel ke mahatva par essay

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               शिक्षा में खेलकूद का स्थान पर निबंध

नमस्कार मित्रों स्वागत है आपका हमारे एक और नये आर्टिकल पर। आज की पोस्ट में हम आपको 'शिक्षा में खेलकूद का स्थान पर निबंध / Shiksha mein khel ke mahatva par essay' के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे एवं इस निबंध से संबंधित सभी महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर पर भी परिचर्चा करेंगे। ये सभी महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर एनसीईआरटी पैटर्न पर आधारित हैं।  तो इस पोस्ट को आप लोग पूरा पढ़िए। अगर पोस्ट अच्छी लगे तो अपने दोस्तों में भी शेयर करिए।


शिक्षा में खेलकूद का स्थान


Table of Contents- 

(1) प्रस्तावना, 

(2) जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्व 

(3) शिक्षा और क्रीडा का सम्बन्ध, 

(4) शिक्षा में क्रीडा एवं व्यायाम का महत्त्व 

(क) शारीरिक विकास, 

(ख) मानसिक विकास, 

(ग) नैतिक विकास, 

(घ) आध्यात्मिक विकास, 

(ङ) शिक्षा-प्राप्ति में रुचि, 

(5) व्यायाम और शिक्षा का समन्वय, 

(6) उपसंहार ।


प्रस्तावना - खेल मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति बालकों, युवकों और वृद्धों तक में पाई जाती है। जो बालक अपनी बाल्यावस्था में खेलों में भाग नहीं लेता, वह बहुत सी बातें सीखने से वंचित रह जाता है और उसके व्यक्तित्व का भली प्रकार विकास नहीं हो पाता। अतः खेल एवं स्वास्थ्य का जीवन में बड़ा महत्त्व है।


जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्व-स्वास्थ्य जीवन की आधारशिला है। स्वस्थ मनुष्य ही अपने जीवन सम्बन्धी कार्यों को भली-भाँति पूर्ण कर सकता है। हमारे देश में धर्म का साधन शरीर को ही माना गया है अतः कहा गया है— 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'। इसी प्रकार अनेक लोकोक्तियाँ भी स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रचलित हो गई है; जैसे- 'पहला सुख नीरोगी काया', 'एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत है', 'जान है तो जहान है' आदि। इन सभी लोकोक्तियों का अभिप्राय यही है कि मानव को सबसे पहले अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। यह स्वास्थ्य हमें व्यायाम अथवा खेलकूद से प्राप्त होता है।


शिक्षा और क्रीडा का सम्बन्ध - यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि शिक्षा और क्रीडा का अनिवार्य सम्बन्ध है। शिक्षा यदि मनुष्य का सर्वांगीण विकास करती है तो उस विकास का पहला अंग है शारीरिक विकास। शारीरिक विकास व्यायाम और खेल-कूद के द्वारा ही सम्भव है। इसलिए खेल कूद या क्रीड़ा को अनिवार्य बनाए बिना शिक्षा की प्रक्रिया का सम्पन्न हो पाना सम्भव नहीं है। अन्य मानसिक, नैतिक या आध्यात्मिक विकास भी परोक्ष रूप से क्रीडा और व्यायाम के साथ ही जुड़े हैं। यही कारण है कि प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकीय शिक्षा के साथ-साथ खेल-कूद और व्यायाम की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दी जाती है।


शिक्षा में क्रीडा एवं व्यायाम का महत्त्व-संकुचित अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना और मानसिक विकास करना ही समझा जाता है, लेकिन व्यापक अर्थ में शिक्षा से तात्पर्य केवल मानसिक विकास से ही नहीं है, वरन् शारीरिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास अर्थात् सर्वांगीण विकास से है। सर्वांगीण विकास के लिए शारीरिक विकास आवश्यक है और शारीरिक विकास के लिए खेल-कूद तथा व्यायाम का विशेष महत्त्व है। शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में भी खेल-कूद की परम उपयोगिता है, जिसे निम्नलिखित रूपों में जाना जा सकता है-


(क) शारीरिक विकास- शारीरिक विकास तो शिक्षा का मुख्य एवं प्रथम सोपान है, जो खेल-कूद और व्यायाम के बिना कदापि सम्भव नहीं है। प्रायः बालक की पूर्ण शैशवावस्था भी खेल-कूद में ही व्यतीत होती है। खेल-कूद से शरीर के विभिन्न अंगों में एक सन्तुलन स्थापित होता है, शरीर में स्फूर्ति उत्पन्न होती है, रक्त संचार ठीक प्रकार से होता है और प्रत्येक अंग पुष्ट होता है। स्वस्थ बालक पुस्तकीय ज्ञान को ग्रहण करने की अधिक क्षमता रखता है; अतः पुस्तकीय शिक्षा को सुगम बनाने के लिए भी खेल कूद और व्यायाम की नितान्त आवश्यकता है।


(ख) मानसिक विकास-मानसिक विकास की दृष्टि से भी खेल कूद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। स्वस्थ शरीर ही

स्वस्थ मन का आधार होता है। इस सम्बन्ध में एक कहावत भी प्रचलित है कि 'तन स्वस्थ तो मन स्वस्थ' (Healthy mind in a healthy body); अर्थात् स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। शरीर से दुर्बल व्यक्ति विभिन्न रोगों तथा चिन्ताओं से ग्रस्त हो मानसिक रूप से कमजोर तथा चिड़चिड़ा बन जाता है। वह जो कुछ पढ़ता लिखता है, उसे शीघ्र ही भूल जाता है; अतः वह शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। खेल-कूद से शारीरिक शक्ति में तो वृद्धि होती ही है, साथ-साथ मन में प्रफुल्लता, सरसता और उत्साह भी बना रहता है।


(ग) नैतिक विकास – बालक के नैतिक विकास में भी खेल-कूद का बहुत बड़ा योगदान है। खेल-कूद से शारीरिक एवं मानसिक सहन-शक्ति, धैर्य और साहस तथा सामूहिक भ्रातृभाव एवं सद्भाव की भावना विकसित होती है। बालक जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं को खेल भावना से ग्रहण करने के अभ्यस्त हो जाते हैं तथा शिक्षा प्राप्ति के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को हँसते-हँसते पार कर सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाते हैं।


(घ) आध्यात्मिक विकास- खेलकूद आध्यात्मिक विकास में भी परोक्ष रूप से सहयोग प्रदान करते हैं। आध्यात्मिक जीवन निर्वाह के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे सब खिलाड़ी के अन्दर विद्यमान रहते हैं। योगी व्यक्ति सुख-दुःख, हानि-लाभ अथवा जय-पराजय को समान भाव से ही अनुभूत करता है। खेल के मैदान में ही खिलाड़ी इस समभाव को विकसित करने की दिशा में कुछ-न-कुछ सफलता अवश्य प्राप्त कर लेते हैं। वे खेल को अपना कर्त्तव्य मानकर खेलते हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक विकास में भी खेल का महत्त्वपूर्ण स्थान है।


(ङ) शिक्षा प्राप्ति में रुचि - शिक्षा में खेल-कूद का अन्य रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने कार्य और खेल में समन्वय स्थापित किया है। बालकों को शिक्षित करने का कार्य यदि खेल-पद्धति के आधार पर किया जाता है तो बालक उसमें अधिक रुचि लेते हैं और ध्यान लगाते हैं; अतः खेल के द्वारा दी गई शिक्षा सरल, रोचक और प्रभावपूर्ण होती है। इसी मान्यता के आधार पर ही किण्डरगार्टन, मॉण्टेसरी, प्रोजेक्ट आदि आधुनिक शिक्षण-पद्धतियाँ विकसित हुई है। इसे 'खेल पद्धति द्वारा शिक्षा' (Education by play way) कहा जाता है; अतः यह स्पष्ट है कि व्यायाम और खेलकूद के बिना शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करना असम्भव है।


व्यायाम और शिक्षा का समन्वय- उपर्युक्त आधार पर यह स्पष्ट है कि शिक्षा में व्यायाम और खेलकूद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका अर्थ यह नहीं है कि खेल-कूद के समक्ष शिक्षा के अन्य अंगों की उपेक्षा कर दी जाए। आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा और खेल कूद में समन्वय स्थापित किया जाए। विद्यार्थीगण खेल-कूद और व्यायाम से शक्ति का संचय करें, स्फूर्ति एवं ताजगी प्राप्त करें और इन सबका सदुपयोग शिक्षा प्राप्त करने में करें। किसी भी एक कार्य को निरन्तर करते रहना ठीक नहीं है। इस सम्बन्ध में एक अंग्रेज कवि की उक्ति है—


Work while you work

Play while you play,

That is the way

To be happy and gay.


अर्थात् काम के समय मन लगाकर काम करो और खेलने के समय मन लगाकर खेलो। जीवन में प्रसन्नता प्राप्त करने का एकमात्र यही तरीका है।


अतः हमें पढ़ाई के समय खेलकूद से दूर रहना चाहिए और खेल के समय प्रत्येक दृष्टि से चिन्तारहित होकर

केवल खेलना ही चाहिए।


उपसंहार—व्यायाम और खेलकूद से शरीर में शक्ति का संचार होता है, जीवन में ताजगी और स्फूर्ति मिलती है। आधुनिक शिक्षा जगत् में खेल के महत्त्व को स्वीकार कर लिया गया है। छोटे-छोटे बच्चों के स्कूलों में भी खेल कूद की समुचित व्यवस्था की गई है। यदि भविष्य में सुयोग्य नागरिक एवं सर्वांगीण विकासयुक्त शिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करना है तो शिक्षा में खेल कूद की उपेक्षा न करके उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करना होगा।


Frequently Asked Questions (FAQ)


प्रश्न 1- शिक्षा में खेलों का क्या स्थान है?

उत्तर- खेलकूद अच्छे स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए उपयोगी होते हैं, खेलकूद से सामंजस्य की क्षमता का विकास होता है, खेलकूद करने वाले विद्यार्थी शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और तंदुरुस्त रहते हैं, उनके शारीरिक शक्ति में वृद्धि होने लगती है और शरीर में रक्त प्रवाह सुचारू रूप से चलते रहता है।


प्रश्न 2- खेलकूद का हमारे जीवन में क्या महत्व है?

उत्तर- खेलकर से पुष्ट और स्फूर्तिमय शरीर ही मन को स्वस्थ बनाता है। खेलकूद मानव मन को प्रसन्न और उत्साहित बनाए रखते हैं। खेलों से नियम पालन के स्वभाव का विकास होता है और मन एकाग्र होता है। खेल में भाग लेने से खिलाड़ियों में सहिष्णुता,धैर्य और साहस का विकास होता है तथा सामूहिक सद्भाव और भाईचारे की भावना बढ़ती है।


प्रश्न 3- खेल शिक्षा का अर्थ क्या है?

उत्तर- संयुक्त राज्य अमेरिका में ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में खेल शिक्षा एक पाठ्यक्रम और निर्देश मॉडल के रूप में उत्पन्न हुई। इसकी परिकल्पना डेरिल सिडेनटॉप द्वारा इस उद्देश्य से की गई थी कि बच्चों को 'पूर्ण अर्थों में' शिक्षित किया जाए, और 'सक्षम, साक्षर और उत्साही खिलाड़ियों' को विकसित करने में मदद की जाए।


प्रश्न 4- शिक्षा में खेल की भूमिका क्या है?

उत्तर- खेल से बच्चों का शारीरिक विकास, संज्ञानात्मक विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास एवम् नैतिक विकास को बढ़ावा मिलता है किन्तु अभिभावकों की खेल के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति एवम् क्रियाकलाप ने बुरी तरह प्रभावित किया हैं। अतः यह अनिवार्य है कि शिक्षक और माता-पिता खेल के महत्व को समझें।


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