भारत में लोकतंत्र की सफलता पर निबंध / Essay on success of democracy in India
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भारत में लोकतन्त्र की सफलता// Bharat mein loktantra ki safalta
प्रमुख विचार-बिन्दु - (1) प्रस्तावना, (2) दलों को संवैधानिक मान्यता, (3) भारत में प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रणाली, (4) दलों की अनिवार्यता, (5) दल द्वारा सरकार की रचना, (6) विरोधी दल का महत्त्व, (7) राजनीतिक दलों की उपयोगिता, (8) भारत में लोकतन्त्र की सफलता, (9) उपसंहार।
प्रस्तावना - भारतीय संविधान की प्रस्तावना ने भारत को लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया है। लोकतन्त्र और प्रजातन्त्र समान अर्थ वाले शब्द हैं। आधुनिक युग में लोकतन्त्र को शासन की सर्वोत्तम प्रणाली माना गया है। अनेक विद्वानों ने लोकतन्त्र की व्याख्या की है। यूनान के दार्शनिक क्लीयॉन (Cleon) ने प्रजातन्त्र को परिभाषित करते हुए कहा था, "वह व्यवस्था प्रजातान्त्रिक होगी, जो जनता की होगी, जनता के द्वारा और जनता के लिए होगी।" बाद में यही परिभाषा अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा भी दोहरायी गयी। भारत का एक सामान्य शिक्षित व्यक्ति प्रजातन्त्र का अर्थ एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया से लगाता है जो वयस्क मताधिकार चुनाव, कम-से-कम दो राजनीतिक दल, स्वतन्त्र न्यायपालिका, प्रतिनिध्यात्मक एवं उत्तरदायी सरकार, स्वस्थ जनमत, स्वतन्त्र प्रेस तथा मौलिक अधिकारों की विशिष्टताओं से युक्त हो । विस्तृत अर्थों में प्रजातन्त्र एक आदर्श है, स्वयं में एक ध्येय है न कि साधन। एक प्रजातान्त्रिक देश में प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास का समुचित अवसर प्राप्त होता है, आर्थिक शोषण की अनुपस्थिति होती है, एकता तथा नैतिकता का वास होता है।
दलों को संवैधानिक मान्यता-भारत में प्राचीनकाल से ही लोकतान्त्रिक शासन-पद्धति विद्यमान है तथा विश्व में सबसे बड़ा लोकतन्त्रात्मक राष्ट्र भारत है। यहाँ प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद चुनाव होते हैं। चुनाव में जो दल विजयी होता है, वह सरकार बनाता है। भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त संविधान प्रत्येक व्यक्ति को संस्था या संगठन बनाने का अधिकार भी देता है। इस कारण देश में कई दल या पार्टियाँ हैं, जो अपने सिद्धान्तों एवं आदर्शों को लेकर चुनाव के अखाड़े में उतरती हैं।
भारतीय लोकतन्त्र का आधार इंग्लैण्ड का लोकतान्त्रिक स्वरूप रहा है। इंग्लैण्ड में केवल दो ही दल हैं। भारत का यह दुर्भाग्य है।कि यहाँ अनेकानेक दल हैं, लेकिन कोई भी सशक्त दल नहीं है। लगभग चालीस वर्षों तक कांग्रेस सशक्त दल के रूप में सत्ता में थी, लेकिन आपसी फूट के कारण अब उसका भी अपना प्रभाव समाप्त होता जा रहा है।
भारत में प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रणाली — भारत में प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र प्रचलन में है। इस पद्धति में जनता अपने प्रतिनिधि वोट द्वारा चुनती है। जे० एस० मिल के अनुसार, "प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र वह है, जिसमें सम्पूर्ण जनता अथवा बहुसंख्यक भाग शासन की शक्ति का प्रयोग उन प्रतिनिधियों द्वारा करते हैं, जिन्हें वह समय-समय पर चुनते हैं।"
प्रजातन्त्र में राजनीतिक दलों का होना आवश्यक है। ये दल संख्या में दो या दो से अधिक भी हो सकते हैं। निर्दलीय व्यवस्था के अन्तर्गत प्रजातन्त्र चल नहीं सकता। इसलिए प्रजातन्त्र में दलीय व्यवस्था अपरिहार्य है। राजनीतिक दल व्यक्तियों का एक संगठित समूह होता है जिसका राजनीतिक विषयों के सम्बन्ध में एक मत होना आवश्यक है। गिलक्रिस्ट के अनुसार, "राजनीतिक दल ऐसे नागरिकों का संगठित समूह है, जो एक-से राजनीतिक विचार रखता है और एक इकाई के रूप में कार्य करके सरकार पर 'नियन्त्रण रखता है।'
दलों की अनिवार्यता - राजनीतिक दलों के मुख्य कार्य राष्ट्र के सम्मुख उपस्थित राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैदेशिक समस्याओं के सम्बन्ध में अपने विचार निश्चित करके जनता के सामने रखना है। दल तदनुसार विचार व मान्यता रखने वाले प्रत्याशियों को चुनाव में खड़ा करते हैं। इस प्रकार विभिन्न राजनीतिक दल अपने आदर्श और उद्देश्यों के प्रति जनता को आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं।
इस प्रकार आधुनिक युग की प्रजातन्त्रीय पद्धति में राजनीतिक दलों का महत्त्व स्थापित हो जाता है। जो व्यक्ति चुनाव में चुन लिया जाता है, वह दल के नियन्त्रण में रहने के कारण मनमानी नहीं कर पाता। यदि दल का नेतृत्व योग्य और ईमानदार व्यक्ति के हाथों में होता है तो वह इस बात का ध्यान रखता है कि दुराचरण के कारण उसकी प्रतिष्ठा और जनप्रियता कम न हो। यह सत्य है कि निष्पक्ष, निःस्वार्थ व योग्य व्यक्ति आजकल चुनाव लड़ना पसन्द नहीं करते। यह हमारे प्रजातन्त्र की बहुत बड़ी कमजोरी है। फिर भी इस वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता है कि राजनीतिक दल प्रजातन्त्र के लिए अनिवार्य हैं।
दल द्वारा सरकार की रचना - चुनाव के पश्चात् जिस दल के प्रत्याशी अधिक संख्या में निर्वाचित होकर संसद या विधानमण्डलों में पहुँचते हैं, वही दल मन्त्रिमण्डल बनाता है और शासन की बागडोर संभालता है। यदि किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो दो या अधिक दल स्वीकृत न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर मिलकर मन्त्रिमण्डल बनाते हैं। शेष विरोधी पक्ष में रहकर सरकार की नीति और कार्यक्रम की समीक्षा करते हैं। यदि मन्त्रिमण्डल के सभी मन्त्री एक राजनीतिक दल के नहीं हो तो सरकार के विभिन्न विभागों के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकेगा और कोई दीर्घकालीन कार्यक्रम नहीं चल सकेगा। इसके विपरीत यदि किसी सुसंगठित दल के पास शासन सत्ता हो तो वह आगामी चुनाव तक निश्चिन्त होकर शासन चला सकता है। शासक दल के सदस्य संसद के बाहर भी सरकार की नीतियों का स्पष्टीकरण करके निरन्तर जन-समर्थन प्राप्त करते रहते हैं।
विरोधी दल का महत्त्व - शासक दल के दूसरी ओर विरोधी पक्ष रहता है। जहाँ विरोधी पक्ष में एक से अधिक दल होते हैं, वहाँ अधिक सदस्यों वाले दल का नेता या अन्य कोई व्यक्ति जिसके विषय में सभी दलों की सहमति हो जाए विरोधी पक्ष का नेता चुन लिया जाता है। वास्तव में संसदीय प्रजातन्त्र में विरोधी पक्ष का बड़ा महत्त्व होता है। विरोधी पक्ष सरकार की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखता है। कोई भी प्रस्ताव या विधेयक बिना वाद-विवाद के पारित नहीं हो सकता। स्थगन प्रस्तावों, निन्दा-प्रस्तावों और अविश्वास प्रस्तावों के भय से शासक दल मनमानी नहीं कर सकता और सदा सतर्क रहता है। यदि विरोधी पक्ष बिल्कुल ही न रहे या अति दुर्बल व अशक्त हो तो सरकार निरंकुश हो सकती है तथा सत्तारूढ़ दल जनमत की अवहेलना कर सकता है।
राजनीतिक दलों की उपयोगिता - राजनीतिक दल जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करने का कार्य करते हैं। वे सरकार द्वारा किये गये कार्यों का औचित्य व त्रुटियाँ जनता को बतलाते हैं। जनता एक प्रकार से विरोधी दलों के लिए अदालत का कार्य करती है। उसके सामने शासक दल और विरोधी दल अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं और फिर उससे आगामी चुनाव में निर्णय माँगते हैं। विभिन्न दलों के तर्क-वितर्क सुनकर जनता भी राजनीतिक परिपक्वता प्राप्त करती है। इस प्रकार जन-शिक्षा और जन-जागृति के लिए राजनीतिक दलों का बड़ा महत्त्व है।
भारत में लोकतन्त्र की सफलता-अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन कैनेडी के अनुसार, "लोकतन्त्र में एक मतदाता का अज्ञान सबकी सुरक्षा को संकट में डाल देता है।" हम जानते हैं कि भारत के लगभग आधे मतदाता अशिक्षित हैं और 'वोट' के महत्त्व से अपरिचित हैं। ऐसी स्थिति भारत की लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली पर निश्चित रूप से प्रश्न-चिह्न लगाती है।
आज भारतीय लोकतन्त्र उठा-पटक की स्थिति से गुजर रहा है। वह देश जिसने लोकतन्त्र के चिराग को प्रज्वलित तृतीय विश्व के देशों को आलोकित करने का प्रयास किया था, आज उसके चिराग की रोशनी स्वयं मद्धिम होती जा रही है। राष्ट्र की छवि दिनानुदिन धूमिल पड़ती जा रही है तथा राजनीतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। कह सकते हैं कि भारतीय लोकतन्त्र संक्रमण की स्थिति से गुजर रहा है।
लोकतन्त्र के चार आधार स्तम्भ होते हैं—विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और समाचार-पत्र। वर्तमान में संसद और विधानसभाओं में हाथा-पायी, गाली-गलौज, एक-दूसरे पर अश्लील आरोप आदि होते हैं तथा जनता के प्रतिनिधि जनता का विश्वास खोते जा रहे हैं। सन् 1967 के चुनावों के बाद त्यागी, योग्य, ईमानदार एवं चरित्रवान् व्यक्तियों को कम ही चुना जा सका है। निर्वाचित सदस्य जन-कल्याण की भावना से दूर रहे हैं तथा भारतीय राजनीति का अपराधीकरण हुआ है। फलतः लोकतान्त्रिक मूल्यों को आघात पहुँचा है।
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता लोकतन्त्र में अनिवार्य है। आज भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति, उनके स्थानान्तरण, पदोन्नति आदि में जिस प्रकार की नीति का परिचय दिया जाता है उससे न्यायपालिका के चरित्र को आघात पहुंचा है। दूसरी ओर लाखों मुकदमे न्यायालयों में न्याय की आशा में लम्बित पड़े हुए हैं। ग्लैडस्टन के मतानुसार, “Justice delayed is justice denied” अर्थात् विलम्बित न्याय न्याय से वंचित करना है। ऐसी स्थिति में भारत में लोकतन्त्र की सफलता कैसे मानी जा सकती है?
भारत में लोकतन्त्र की जड़े खोदने का कार्य करती है— कार्यपालिका प्रशासन की सुस्ती, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, शीघ्र निर्णय न लेना, अधिकारियों का आमोद-प्रमोद में डूबे रहना, स्वच्छन्द प्रवृत्ति के लोगों का प्रशासन में घुस आना, देश में आतंकवाद और अराजकता को रोकने के लिए ठोस कदम न उठाना, गरीबी और बेरोजगारी पर नियन्त्रण न कर पाना प्रशासन की असफलता के • द्योतक हैं। ऐसे प्रशासन से तो लोकतन्त्र की सफलता की क्या कल्पना की जा सकती है?
लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ है— समाचार-पत्र अर्थात् लोकतन्त्र की रीढ़ है— विचारों की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति । आज इस पर भी अनेक नाजायज विधानों द्वारा इनके मनोबल को तोड़ा जाता है। ऐसे में भारत में लोकतन्त्र की सफलता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है।
उपसंहार - आवश्यकता है कि भारत में सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन लाया जाए तथा दिनानुदिन गिरते हुए राष्ट्रीय चरित्र को बचाया जाए। राष्ट्रीय भावना का दिनोदिन हास होता जा रहा है, इसे उन्नत किया जाना चाहिए। मन्त्रिमण्डलीय अधिनायक तन्त्र, दल-बदल की संक्रामकता, केन्द्र-राज्य में बिगड़ते सम्बन्ध, सांसदों का गिरता हुआ नैतिक स्तर तथा प्रान्तीय पृथकतावाद को समाप्त करना होगा। समस्त नागरिकों को आर्थिक व सामाजिक न्याय उपलब्ध कराना होगा । लोकतन्त्र में शासन सत्ता वस्तुतः सेवा का साधन समझी जानी चाहिए। लोकतन्त्र की सफलता के लिए नेताओं एवं शासकों में लोक-कल्याण की भावना का होना आवश्यक है। यद्यपि लोकतन्त्र में पक्ष-विपक्ष की भावना "मैं और मेरा, तू और तेरा" की भाव-धारा को जन्म देती है तथापि पक्षों। का होना भी एक अपरिहार्य आवश्यकता है। यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि मतभेद व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और वैमनस्य का रूप न ग्रहण कर लें।
यदि उपर्युक्त बातें पूरी होती रहें तो कोई भी झोंका भारतीय लोकतन्त्र को हिला नहीं सकता; क्योंकि कोई भी व्यवस्था यदि जन-आकांक्षाओं की पूर्ति करती है तो उस व्यवस्था के प्रति लोगों की आशाएँ खण्डित नहीं होतीं।
प्रजातन्त्र में दलों का होना अति आवश्यक है। राजनीतिक दल चाहे शासक के रूप में हों या विरोधी पक्ष के रूप में, उनसे जनता का हित साधन ही होता है, किन्तु बरसाती मेंढकों की तरह राजनीतिक दलों का बढ़ना देश के लिए अहितकर और विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। इससे फूट, द्वेष, हिंसा, कलह आदि बढ़ते हैं और देश में कोई रचनात्मक व अभ्युदय कार्यक्रम नहीं हो पाते। अतः हमारे देश में भी इंग्लैण्ड की तरह द्विदल प्रणाली विकसित हो सके तो वह दिन सौभाग्य व खुशहाली का दिन होगा।
People also asked-
Q.भारतीय लोकतंत्र की क्या स्थिति है?
Ans- भारत एक संसदीय धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है जिसमें भारत का राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख और भारत का पहला नागरिक होता है और भारत का प्रधान मंत्री सरकार का प्रमुख होता है। यह सरकार के संघीय ढांचे पर आधारित है।
Q.लोकतंत्र किसे कहते हैं तथा उसकी सफलता के लिए कौन कौन सी परिस्थितियां आवश्यक है?
Ans- लोकतंत्र एक प्रकार का शासन व्यवस्था है, जिसमे सभी व्यक्ति को समान अधिकार होता हैं। एक अच्छा लोकतंत्र वह है जिसमे राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। देश में यह शासन प्रणाली लोगो को सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करती हैं।
Q.लोकतंत्र की सफलता के लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं?
Ans-
•जनता में शिक्षा तथा जागरूकता
•आर्थिक तथा राजनीतिक समानता
•नागरिकों का उच्च नैतिक स्तर
•सामाजिक एकता और एकजुटता
Q.भारतीय लोकतंत्र में समानता क्या है?
Ans- भारतीय लोकतंत्र में समानता भारतीय संविधान सब व्यक्तियों को समान मानता है। इसका अर्थ है कि देश के व्यक्ति चाहे वे पुरुष हों या स्त्री, किसी भी जाति, धर्म, शैक्षिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंध रखते हों, वे सब समान माने जाएँगे। लेकिन इसके बाद भी हम यह नहीं कह सकते कि असमानता खत्म हो गई है।
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