Rahim Das Ji ka jivan Parichay//रहीम दास जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक कृतियां संक्षिप्त वर्णन
स्वागत है आज की नई पोस्ट में आज आपको बताने वाले रहीम दास जी का जीवन परिचय। नमस्कार दोस्तों भारत में ऐसे कई संत और कभी हुए हैं जिनकी रचनाओं से हमें प्रेरणा मिलती है कुछ नया सीखने को मिलता है आज हम आपको रविदास जी का जीवन परिचय बताने वाला जा रहे हैं जो किए तो मुसलमान लेकिन उनका हिंदू धर्म में बहुत ही लगाव था रहीम दास जी हिंदी साहित्य जगत के महान कवियों में से एक थे।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोडरो चटकाय.
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए,
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय.
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय.
अर्थ-मनुष्य को सोचसमझ कर व्यवहार करना चाहिए,
क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना कठिन होता है, जैसे यदि एक बार दूध फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मत कर मक्खन नहीं निकाला जा सकता.
जीवन परिचय-
रहीम का पूरा नाम अब्दुल र्रहीम खानखाना था। इनका जन्म 17 दिसंबर सन 1556 ईस्वी में लाहौर (वर्तमान में पाकिस्तान) में हुआ था। इनके पिता बैरम खान माता का नाम सुल्ताना बेगम था। बैरम खान एक तुर्की परिवार से थे और हुमायूं की सेना में शामिल हो गए थे। बैरम खान अकबर किशोरावस्था मुगल सम्राट अकबर के संरक्षक थे। इन्हीं कारणवश अकबर बैरम कहां से रुष्ट हो गया था और उसने बैरम खां पर विद्रोह का आरोप लगाकर हज करने के लिए मक्का भेज दिया। मार्ग में उसके शत्रु मुबारक खान ने उसकी हत्या कर दी। बेगम खान की हत्या के पश्चात अकबर ने रहीम और उनकी माता को अपने पास बुला लिया और रहीम की शिक्षा की समुचित व्यवस्था की। प्रतिभा संपन्न रहीम ने हिंदी, संस्कृत, अरबी, फारसी, तुर्की आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उनकी योग्यता को देखकर अकबर ने उन्हें अपने दरबार के नवरत्नों में स्थान दिया। यह अपने नाम की स्वरूप अत्यंत दयालु प्रकृति के थे।
मुसलमान होते हुए भी या श्री कृष्ण के भक्त थे। अकबर की मृत्यु के पश्चात जहांगीर ने उन्हें चित्रकूट में नजरबंद कर दिया था। केशवदास और गोस्वामी तुलसीदास ने इनकी अच्छी मित्रता थी। इनका अंतिम समय व्यक्तियों से गिरा रहा और सन 1627 ईस्वी में मरती हो गई।
साहित्य में स्थान-
पिता बैरम खां अपने युग के एक अच्छे नीतिज्ञ एवं विद्वान थे। अतः वाली काल से ही रहीम को साहित्य के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया था। योग गुरुओं के संपर्क में रहकर उनमें अनेक का भी गुणों का विकास हुआ। उन्होंने कई ग्रंथों का अनुवाद किया तथा ब्रिज अवधि एवं खड़ी बोली में कविताएं भी लिखी उनकी नीति के दोहे तो सभी के जीह्वा रहते हैं। दैनिक जीवन की अनुभूतियों पर आधारित धृष्टता ओके माध्यम से इनका सीधे ह्रदय पर चोट करता है। इनकी रचना में नीति के अतिरिक्त भक्ति एवं श्रृंगार की भी सुंदर व्यंजना दिखाई देती है इन्होंने अनेक ग्रंथों का अनुवाद भी किया है।
रचनाएं-
रहीम की रचना इस प्रकार है–रहीम सतसई, श्रृंगार सतसई, मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी, रहीम रत्नावली एवं बरवै नायिका- भेद वर्णन। रहीम सतसई नीति के दोहों का संकलन ग्रंथ है। इसमें लगभग 300 दोहे प्राप्त हुए हैं। मदन अष्टक में श्री कृष्ण और गोपियों की प्रेम संबंधी लीलाओं का रस चित्रण किया गया है। रास पंचाध्याई श्रीमद्भागवत पुराण के आधार पर लिखा गया ग्रंथ है जो अब अप्राप्य हैं। बरवै नायिका भेद में नायिका भेद का वर्णन बरवै छंद में किया गया है।
भाषा शैली-
रहीम जनसाधारण में अपने दोहे के लिए प्रसिद्ध हैं, पर उन्होंने कवित्त, सवैया, सोरठा तथा बरवै छंदों में भी सफल काव्य रचना की है। इन्होंने ब्रज भाषा में अपनी काव्य रचना की। इनके वृक्ष का रूप सरल व्यवहारिक स्पष्ट एवं प्रभावपूर्ण है।
यह कई भाषाओं के जानकार थे, इसलिए इनकी काव्य भाषा में विभिन्न भाषाओं के शब्दों के प्रयोग भी देखने को मिलते हैं, अवधि में ब्रज भाषा के शब्द तो मिलते ही हैं पर अवधि के ग्रामीण शब्दों का भी खुलकर प्रयोग इन्होंने किया है। इन्होंने मुक्तक शैली में काव्य सृजन किया। इंडिया शैली अत्यंत सरस सरल एवं बोधगम्य है।
कला पक्ष-
रहीम अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा विद्वान थे उन्होंने अपने काव्य रचना ब्रज भाषा में की। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ अन्य भाषाओं के शब्द भी पाए जाते हैं। इन्होंने सवैया भैरव इत्यादि छंदों का प्रयोग अपने काम में किया है। उनके साथ ही अपने गीत शैली में भी कुछ रचनाएं की है।
रहीम की कविता में अलंकारों का स्वाभाविक रूप मिलता है। इन्होंने रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, यमक आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। रहीम ने अलंकारों का बहुत ही अच्छा प्रयोग किया है।
भाव पक्ष-:
रहीम के नीति संबंधी दोहे अत्यंत प्रसिद्ध है। इनके नीति के दोहे लोगों की जुबां पर रहते हैं। वश में कवि के जीवन के खट्टे मीठे अनुभव की छाप है। दैनिक जीवन की अनुभूतियों पर आधारित जस्ट आंतों के कारण इनकी नीति संबंधित कविता का लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। नीति के अतिरिक्त रहीम की भक्ति एवं श्रृंगार संबंधित रचनाएं भी अत्यंत लोकप्रिय है।
रहीम ने इस व्यक्ति की रचना की है भगवान श्री कृष्ण की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने चित्र जैसा अंकित कर दिया है। रहीम की कविता में सिंगार, वीर, करुण, शांत इत्यादि का प्रयोग किया गया है।
रहीम कवि के रूप में-
मुगल बादशाह अकबर का दरबार ही एक ऐसा दरबार था जिसमें धर्मनिरपेक्षता चलती थी। अकबर के दरबार में सभी धर्मों के देवी देवताओं को उचित सम्मान किया जाता था। रहीम दास श्री कृष्ण के भक्त थे। अकबर के धर्मनिरपेक्ष होने के कारण कवि रहीम की कृष्ण भक्ति का विरोध नहीं किया।
रहीम के दोहे आज भी कई पुस्तकों में देखे जाते हैं। रहीम की कृष्ण भक्ति और हिंदू धर्म को सामान देने पर रहीम को रहीम दास जी का जाने लगा। रहीम दास जी की गिनती तुलसीदास और सूरदास जैसे कवियों में होने लगी। रहीम दास जी ने ज्योतिष पर अपनी 2 पुस्तकें भी लिखी जो काफी प्रसिद्ध हैं। उनका नाम कौतुकम और व्दाविष्ट योगावाली है।
रहीम की मृत्यु कब हुई-
अकबर की मौत हो जाने के बाद अकबर का बेटा जहांगीर राजा बना लेकिन रहीम जांगिड़ के राजा बनने के पक्ष में नहीं थे। इस कारण अब्दुल रहीम के दो बेटों को जहांगीर ने मरवा दिया और फिर 1 अक्टूबर 1627 को अब्दुल रहीम की भी चित्रकूट में मौत हो गई। रहीम की मौत हो जाने के बाद उनके सब को दिल्ली लाया गया और वहां पर उनका मकबरा आज भी स्थित है।
खान-ए- खाना मकबरा
खान एक खाना के नाम से प्रसिद्ध मकबरा अब्दुल रहीम खानखाना का है। इस मकबरे का निर्माण अब्दुल रहीम खानखाना के द्वारा अपनी बेगम की याद में बनवाया गया था, जिनकी मदद की 1598 ईसवी में हो गई थी। लेकिन बाद में सोए अब्दुल रहीम को भी 1627 में उनकी मृत्यु के पश्चात इसी मकबरे में दफनाया गया।
रहीम दास जी के जीवन परिचय के विशेष बिंदु-
राम जी 5 वर्ष के थे। उसी समय गुजरात के पाटन नगर में उनके पिता की हत्या कर दी गई। उनका पालन पोषण स्वयंवर की देखरेख में हुआ।
इनकी कार्य क्षमता से प्रवाहित होकर अकबर ने 1572 ईसवी में गुजरात की चढ़ाई के अवसर पर इन्हें पाटन की राजगीर प्रदान की। अकबर के शासन काल में इनकी निरंतर पदोन्नति होती रही।
1576 ईस्वी में गुजरात विजय के बाद इन्हें गुजरात की सुबेदारी मिली।
1579 ईसवी में इन्हें मीर आर्जू का पद प्रदान किया।
1873 ईस्वी में इन्होंने बड़ी योग्यता से गुजरात के उपद्रव का दमन किया
अकबर ने प्रसन्न होकर 1586 ईसवी में इन्हें खानखाना की उपाधि और पंचहजारी का मन प्रदान किया।
1889 ईस्वी में अनेक वकील की पदवी से सम्मानित किया।
16 से 4 ईसवी में शहजादा दानियाल की मृत्यु और अबुल फजल की हत्या के बाद इन्हें दक्षिण का पूरा अधिकार मिल गया। जहांगीर के शासन के प्रारंभिक दिनों में इन्हें पूर्वज सम्मान मिलता रहा।
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