परहित सरिस धर्म नहिं भाई निबंध / Essay on Philanthropy

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परहित सरिस धर्म नहिं भाई निबंध / Essay on Philanthropy

परहित सरिस धर्म नहिं भाई निबंध / Essay on Philanthropy


परहित सरिस धर्म नहिं भाई निबंध // Essay on Philanthropy in Hindi




 


परहित सरिस धरम नहिं भाई




प्रमुख विचार-बिन्दु–(1) प्रस्तावना, (2) परोपकार की महत्ता अर्थात् परोपकार मानवीय धर्म, (3) प्रकृति और परोपकार, (4) परोपकार : मानवता का परिचायक, (5) परोपकार के विविध रूप, (6) परोपकार: आत्म-उत्थान का मूल, (7) उपसंहार । 


प्रस्तावना – "परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई", अर्थात् दूसरे की भलाई करने से बढ़कर कोई धर्म नहीं और दूसरे को कष्ट पहुँचाने से बढ़कर कोई नीच काम नहीं। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी की ये पंक्तियाँ धर्म की सुन्दर परिभाषा प्रस्तुत करती हैं।


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः समाज में एक-दूसरे का सहयोग किये बिना वह पूर्ण मानव नहीं बन सकता। कोई भी मनुष्य स्वयं में पूर्ण नहीं है, किसी-न-किसी कार्य के लिए वह दूसरे पर आश्रित रहता ही है। हम दूध-दही के लिए पशुओं पर, फल-फूल तथा अन्नादि के लिए वृक्षों पर, जल के लिए बादल एवं नदियों पर आश्रित हैं। ये सभी बिना किसी स्वार्थ के हमें यही सन्देश प्रदान करते हैं।


परोपकार की महत्ता अर्थात् परोपकार मानवीय धर्म-महर्षि दधीचि ने वृत्रासुर वध के लिए देवताओं द्वारा माँगने पर अपनी हड्डियों को प्रदान करते हुए मानवीय परोपकार का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया था। उनकी हड्डियों से निर्मित सर्वाधिक कठोर वज्र के निर्माण से ही देवता वृत्रासुर का वध कर सके। मानव द्वारा देवों की रक्षा करने के लिए त्याग-भावना द्वारा मानव देवताओं से भी महान् दिखाई देने लगता है। महाराज शिवि ने भी करुणा-भावना के वशीभूत एक कबूतर की प्राण-रक्षा के लिए अपने हाथों से अपने शरीर का मांस काट-काटकर कबूतर को खाने के लिए आये बाज को खिलाकर परोपकार के क्षेत्र में प्रतिमान उपस्थित किया। वास्तव में ये महान् पुरुष धन्य हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए अपने शरीर व प्राणों की भी चिन्ता नहीं की। राष्ट्रकवि


मैथिलीशरण गुप्त ने इनकी वन्दना करते हुए उचित ही कहा है ।

 क्षुधात रन्तिदेव ने दिया करस्थ थाल भी, 

 तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी। उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया, 

सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर चर्म भी दिया। 

अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे, 

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।


इसी भावना से प्रेरित होकर हमारे हजारों क्रान्तिकारी देशभक्तों ने भी नयी पीढ़ी की स्वतन्त्रता एवं सुख-समृद्धि के लिए परोपकार भावना से अनुप्राणित होकर अपने माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री एवं परिवार की तनिक भी चिन्ता न करते हुए अपने प्राणों को हँसते-हँसते देश की बलिवेदी पर चढ़ा दिया। संसार में उन्हीं व्यक्तियों के नाम अमर होते हैं, जो दूसरों के लिए मरते और जीवित रहतेहैं। सीता की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगा देने वाले गिद्धराज जटायु से श्रीराम कहते हैं, "तुमने अपने सत्कर्म से ही सद्गति का अधिकार पाया है, इसका श्रेय मुझे नहीं है"

 परहित बस जिनके मन माहीं। 

तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥


प्रकृति और परोपकार-प्रकृति में परोपकार का नियम अप्रतिहत गति से कार्य करता हुआ दिखाई देता है। सूर्य बिना किसी जाति, देश, वर्ण के भेदभाव के समानता असमानता की भावना से बिना किसी प्रत्युपकार की भावना के समस्त संसार को अपने प्रकाश और उष्णता से जीवन प्रदान करते हैं। वायु सभी को प्राण प्रदान कर रही है। चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से सभी को रस एवं शीतलता प्रदान करता है। पृथ्वी रहने को स्थान देती है। मेघ वर्षा ऋतु में आकर फसलों को हरा-भरा कर देते हैं। वृक्ष तो फूल, फल, छाल, शाखाएँ, ऑक्सीजन, जल, पत्ते, लकड़ियाँ, छाया आदि सर्वस्व प्रदान कर मानव जीवन को आनन्दित बना देते हैं। झरने, प्रपात और नदियाँ अपने अमृतमय जल से पिपासा शान्त करती हुई, विद्युत एवं तैरने के अवसर, नौकाविहार, जलचरों को जीवन प्रदान करती हुई परोपकार की देवी ही बनी हुई है। कहा भी गया है—

 बृच्छ कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।

 परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर ॥ 


ऊपरलिखित सूर्य, चन्द्रमा, वृक्ष, वायु आदि ऐसा किसी प्रतिफल प्राप्ति की भावना से नहीं करते हैं, वे केवल अपने जन्मजात स्वभाववश ही ऐसा करते हैं। तब क्या प्रकृति की ही एक देन, मनुष्य का यह कर्त्तव्य नहीं है कि वह दूसरों के हित में अपने जीवन का कुछ समय ही लगा दे।


परोपकार : मानवता का परिचायक- परोपकार ही मानव को महामानव बनाने की सामर्थ्य रखता है। परोपकार से ही हमारी स्वार्थ भावना नष्ट होती है और हम देवता के समान कहलाने लगते हैं


सूर्य, चन्द्र, बादल, सरिता, भू, पेड़, वायु कर पर उपकार ।

बन जाते हैं देवतुल्य क्या, देवों के सचमुच अवतार ।। 


परोपकारी व्यक्ति समाज में सर्वत्र सम्मान प्राप्त कर देश एवं विश्व के पूज्य बन जाते हैं। परोपकार से ही मनुष्य विश्वबन्धुत्व की भावना की ओर अग्रसर होता है। जनकल्याण, प्राणिसेवा में निरत व्यक्ति परमआदरणीय हो जाता है—


जो पराये काम आता, धन्य है जग में वही 

द्रव्य ही को जोड़कर, कोई सुयश पाता नहीं ॥


परोपकार भाईचारे की भावना का विकास करता है। यही घृणा, द्वेष और स्वार्थ का नाशक है। सभी प्राणियों में अपने ईश्वर का अंश देखकर महापुरुष जगत् के कल्याण में प्रवृत्त हो जाते हैं। राजा रन्तिदेव अपना सर्वस्व दान में देकर अड़तालीस दिन तक भूखे रहे। उनचासवें दिन जब भोजन का प्रबन्ध हुआ तो एक याचक आ गया। उन्होंने वह भोजन याचक को खिलाकर सन्तोष धारण किया


न त्वहं कामये स्वर्गं, न मोक्षं न पुनर्भवम्

कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामार्तनाशनम् ॥


राजा रन्तिदेव ने स्वर्ग मोक्ष न माँग कर मानव ही नहीं सभी प्राणियों की पीड़ा को दूर करने का वरदान माँगा। परोपकारियों को ही सज्जन एवं महापुरुष की पदवी प्रदान की जाती है, जो युगों तक प्रणम्य हो जाते हैं। अट्ठारह पुराणों के रचयिता व्यास जी ने भी परोपकार को पुण्य एवं परपीड़ा को पाप घोषित किया है


अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥


परोपकारी व्यक्ति "निःस्वार्थ परोपकार कर अलौकिक आनन्द का अनुभव करता है। किसी भूखे को भोजन देते समय, प्यासे को पानी पिलाते समय, ठण्ड ■ से ठिठुरते को वस्त्र देते समय, रोगी की सेवा करते समय मानव को जो अपार आनन्द का अनुभव होता है, वह वर्णनातीत है। उस समय वह स्व-पर के भेद से ऊपर उठकर ब्रह्मानन्द की प्राप्ति करता है। हमारी सांस्कृतिक परम्परा में यज्ञ । परोपकार ही है, जिसके द्वारा 'इदं न मम' कहते हुए अग्नि में डाली गयी आहुति 1 लाखों लोगों का कल्याण करती हुई विस्तृत हो जाती है।


परोपकार के विविध रूप-निःशुल्क लंगर, सदाव्रत, प्याऊ, विद्यालय, धर्मशाला, बगीचा, वृक्षारोपण, जलाशय, औषधालय, वस्त्र वितरण, निर्धन विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति, पुस्तकालय, गौशाला आदि की व्यवस्था करना परोपकार के ही विविध रूप हैं। परोपकार का क्षेत्र केवल मनुष्यों तक संकुचित नहीं है, उसमें पशु-पक्षी कोट-पतंग सभी सम्मिलित हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने सभी को प्रणाम करते हुए कहा है ॥


 सियाराममय सब जग जानी। 

 करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।


रहीम ने परोपकार की महिमा का बखान करते हुए लिखा है कि


रहिमन यों सुख होत है, उपकारी के संग

बाँटनवारे को लगे, ज्यों मेंहदी के रंग ॥


तात्पर्य यह है कि परोपकारी व्यक्ति को उसी प्रकार स्वतः हो आनन्द की उपलब्धि होती है, जिस प्रकार लगाने वाले के हाथों में मेंहदी का रंग स्वतः ही आ जाता है।


जहाँ पुल, सड़कें नहीं वहाँ पुल, सड़कों का निर्माण करना, कन्याओं के लिए रोजगार सीखने के निःशुल्क प्रशिक्षण देना, उन्हें स्वावलम्बी बनाना, अकाल, भूकम्प, युद्धादि के अवसर पर अन्न, वस्त्र, निवास की व्यवस्था करना परोपकारी कार्यों की श्रेणी में आते हैं।


सामान्य व्यक्ति तर्क दे सकते हैं कि धन से सम्पन्न व्यक्ति ही परोपकार कर सकता है। विचार करने पर हम अनुभव करेंगे कि परोपकार के लिए धन की कोई आवश्यकता नहीं होती, अपितु एक सेवाभावी मन की आवश्यकता होती है। हम राह भटके हुए को राह दिखा सकते हैं, सड़क के बीच में पड़े हुए केले के छिलके, कंकड़-पत्थर आदि को उठाकर एक किनारे पर फेंक सकते हैं। यह परोपकार ही तो है। हम किसी दुखिया के आँसू पोंछ सकें, किसी आहत व्यक्ति को आहों में साझीदार बन सकें, किसी के सिर पर रखे हुए बोझ को हलका कर सकें, किसी प्यासे को पानी पिला सके आदि, तो हम परोपकार के आनन्द एवं पुण्य फल का लाभ प्राप्त करने के सहज अधिकारी बन जाएँगे। निर्धन विद्यार्थियों को निःशुल्क ट्यूशन उत्तम कोटि का परोपकार कहलाएगा।


परोपकार : आत्म-उत्थान का मूल- मनुष्य क्षुद्र से महान् और विरल से विराट् तभी बन सकता है, जब उसकी परोपकार-वृत्ति विस्तृत होती रहेगी। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि उसने प्राणि-मात्र के हित को मानव जीवन का लक्ष्य बताया है। यही व्यक्ति का समष्टिमय स्वरूप भी है। ज्यों-ज्यों आत्मा में उदारता बढ़ती जाती है, उसे उतनी ही अधिक आनन्द की उपलब्धि होती जाती है तथा अपने समस्त कर्म जीवमात्र के लिए समर्पित कर देने की भावना तीव्रतर होती जाती है


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। 

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॥


तात्पर्य यह है कि सभी लोग सुखी हो, निरोगी हो, कल्याणयुक्त हो। कोई भी दुःख-कष्ट नहीं भोगे। इसी भावना से संचालित होकर सभी जीवों के कल्याण में रत रहना चाहिए। यही सर्वकल्याणमय भावना सन्तों का मुख्य लक्षण है, क्योंकि वे मन, वचन और काया से सदा परोपकार में लगे रहते हैं -

पर उपकार वचन मन काया। सन्त सहज सुभान खगराया।


राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों में


यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे। 


अर्थात् जो अपने लिए जीता है वह पशु है, जो अपने साथ-साथ दूसरों के लिए, भी जीता है वह मनुष्य है और जो केवल दूसरों के लिए ही जीता है वह महामानव है, महात्मा है।


उपसंहार- परोपकारी अक्षय कीर्ति को धारण करते हैं। प्रत्येक युग में उनका सम्मा को प्राप्त होता रहता है। महात्मा गांधी, पं० नमोहन सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, अशफाक उल्ला खाँ, रामप्रसाद' बिस्मिल आदि सदैव ही प्रातः स्मरणीय रहेंगे। तभी तो मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है कि इस जीवन को अमर बनाने के लिए इसे दूसरों को समर्पित कर दो


विचार लो कि -

मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी, 

मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करें सभी


 मानव का जीवन क्षणभंगुर है, किन्तु परोपकार के द्वारा वही अमरता को प्राप्त हो जाता है। भगवान् राम, कृष्ण, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राय "सर्वभूत हिते रतः" रहकर ही अक्षय यश के भागी हैं। वर्तमान समय में परोपकार का स्वरूप बदलता जा रहा है। परोपकार के आवरण में लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति कर रहे हैं। कोई राजनीतिक नेता 'गरीबी हटाओ' का नारा लगाकर गरीबों का वोट अपनी ओर खींचता है तो कोई जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित करवाकर अपना वोट बैंक पक्का करता है। कुछ व्यापारी आयकर में छूट पाने के लिए औषधालय खुलवाते हैं तथा पंजीकृत संस्थाओं में दान देते हैं। यह आज के परोपकार का परिवर्तित स्वरूप है। भारतीय संस्कृति 'वसुधैव कुटुम्बकम्', 'आत्मवत् सर्वभूतेषु', 'सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय' के सद्विवेक का सन्देश देती है। आज ऐसी ही भावना की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति के इन सन्देशों को अपनाकर ही हम परोपकार के सर्वाधिक समीप पहुँच सकते हैं।


परोपकार किसी भी समाज एवं देश के सुख-संवर्धन का एकमात्र उपाय है। जिस समाज में परोपकारी लोगों का आधिक्य होगा वही सुखी और समृद्ध होगा। डॉ० हरिदत्त गौतम 'अमर' के शब्दों में


पर उपकार निरत जो सज्जन कभी नहीं मरते हैं । चन्द्र सूर्य जब तक हैं उन पर यशः पुष्प झरते हैं ।


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