मीराबाई पर निबंध - Essay Mirabai In Hindi - essayonhindi
प्रस्तावना - कृष्ण भक्ति काव्य धारा की कवियित्रियों मैं मीराबाई का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उनकी कविता कृष्ण भक्ति के रंग में रंग कर और गहरी हो जाती है। मीराबाई सगुण धारा की महत्वपूर्ण भक्ति कवि थी।
संत कवि रैदास उनके गुरु थे। मीराबाई कृष्ण जी की भक्त बचपन से ही थी। मीराबाई द्वारा रचित काव्य रूप का जब हम अध्ययन करते हैं, तो हम देखते हैं कि मीराबाई का ह्रदय पक्ष काव्य के विविध स्वरूपों से प्रवाहित है इसमें सरलता और स्वच्छंदता है उसने बत्ती की विविध भाव – भंगिमाएं है। उसमें आत्मानुभूति है और एक निश्चिता की तीव्रता है।
मीराबाई श्री कृष्ण की बहुत बड़ी उपासिका होने के कारण वह मात्र श्रीकृष्ण को अपना सब कुछ समझती थी। उन्होंने श्री कृष्ण जी की मूर्ति को ही अपने मन में बसा के रखा था और उन्हें ही अपना सब कुछ समझती थी यहां तक कि भगवान श्री कृष्ण को वह अपना पति मानती थी।
मीराबाई जी का जन्म - मीराबाई का जन्म 1498 के लगभग राजस्थान के कुड़की गांव के मारवाड़ रियासत के जिलान्तर्गत मेड़ता में हुआ था। मीराबाई मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की एकमात्र संतान थी।
मीराबाई जब दो वर्ष की थी तब ही इनकी माता का देहांत हो गया था। इसलिए कि इनके दादा जी दूदा राव उन्हें मेड़ता लेकर आ गए और अपनी देखरेख में मीराबाई का पालन पोषण करने लगे।
मीराबाई श्री कृष्ण की भक्त
कहा जाता है कि मीराबाई के मन में बचपन से ही श्री कृष्ण की छवि बसी हुई थी एक बार की बात है कि मीराबाई ने खेल ही खेल में भगवान श्री कृष्ण जी की मूर्ति वह अपने हृदय से लगाकर उसे अपना दूल्हा मान लिया था। तभी से लेकर आजीवन मीराबाई श्री कृष्ण जी को ही अपना पति मानती थी।
और तो और श्री कृष्ण जी को मनाने के लिए मीराबाई मधुर मधुर गीत गाती थी श्री कृष्ण को पति मानकर संपूर्ण जीवन व्यतीत कर देने वाली मीराबाई को जीवन में अनेकानेक कष्ट झेलने पड़े थे फिर भी मीराबाई ने इस अपनी अटल भक्ति भावना का निर्वाह करने से कभी भी मुख्य नहीं मोड़ा।
मीराबाई के बचपन की घटना -
मीराबाई का कृष्ण प्रेम उनके जीवन की एक बचपन की एक घटना है और उसी घटना की चरम की वजह से ही वह कृष्ण भक्ति में लीन हो गई बाल्यकाल में एक दिन उनके पड़ोस में किसी धनवान व्यक्ति के यहां बारात आई थी। सभी स्त्रियां छत पर खड़ी होकर बारात देख रही थी।
मीराबाई भी बारात को देखने के लिए छत पर गई थी। बारात को देखने के बाद मीराबाई ने उनकी मां से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है इस पर मीराबाई जी की मां ने मजाक-मजाक में श्रीकृष्ण के मूर्ति के तरफ इशारा करते हुए कह दिया कि श्रीकृष्ण ही तुम्हारा दूल्हा है।
मीराबाई के मन में यह बात बालपन से एक गांठ की तरह समा गई और तब से ही वह सही में श्री कृष्ण जी को ही अपना पति मानने लगी थी।
मीराबाई का विवाह -
मीराबाई आदित्य गुणों की भरमार थी और उन्हीं गुणों को देखकर मेवाड़ नरेश राणा संग्राम सिंह ने मीराबाई के घर अपने बड़े बेटे भोजराज के लिए विवाह का प्रस्ताव भेजा यह प्रस्ताव मीराबाई के परिवार वालों ने स्वीकार कर लिया और भोजराज जी के संग मेरा भाई जी का विवाह हो गया।
लेकिन इस विवाह के लिए मीराबाई ने पहले ही मना कर दिया था लेकिन परिवार वाले के अत्यधिक बल देने पर वह विवाह के लिए तैयार हो गई वह फूट-फूट कर रोने लगी लेकिन विदाई के समय श्री कृष्ण जी की मूर्ति को अपने साथ लेकर चली गई।
जिसे उनकी मां ने उनका दूल्हा बताया था मेरा मीराबाई जी ने लज्जा और परंपरा को त्याग कर अपने अनूठे प्रेम और भक्ति का परिचय दिया।
मीराबाई जी के पति की मृत्यु -
मीराबाई जी के विवाह को केवल दस वर्ष ही हुए थे कि मीराबाई जी के पति भोजराज जी की मृत्यु हो गई पति की मृत्यु के बाद मीराबाई के ऊपर उनके कृष्ण भक्तों को लेकर उनके ससुराल में उनपे कई अत्याचार हुए।
सन 1527 ई०. में बाबर और सांगा के युद्ध में मीराबाई जी के पिताजी भी मारे गए और लगभग तभी इनके ससुर जी की भी मृत्यु हो गई सांगा की मृत्यु के पश्चात भोजराज के छोटे भाई रतन सिंह को सिंहासन पर बैठाया गया।
अतएव अपने ससुर जी के जीवन काल में ही मीराबाई विधवा हो गई थी। सन 1531 ई०. में राणा रतन सिंह की मृत्यु हो गई और फिर उनके सौतेले भाई विक्रमादित्य राणा बने मीराबाई को स्त्री होने के नाते चित्तौड़ के राजवंश की कुलवधू होने के कारण तथा पति के अकाल मृत्यु होने की वजह से जितना विरोध मीराबाई को सहना पड़ा कदाचित ही किसी अन्य भक्तों को सहना पड़ा होगा।
उनकी कृष्ण भक्त सेना केवल उन्हें अत्याचार सहन करना पड़ा बल्कि अपना घर तक उनको छोड़ना पड़ा उन्होंने इस बात का जिक्र अपने काव्य में कई स्थानों पर किया है।
मीराबाई की हत्या का प्रयास -
पति की मृत्यु के पश्चात मीराबाई की कृष्ण भक्ति दिन व दिन बढ़ने लगी थी। वे मंदिरों में जाकर कृष्ण भक्तों के सामने कृष्ण जी की उपासना करती थी और उन्हीं के सामने कृष्ण भक्ति में लीन नृत्य करने लगती थी।
मीराबाई की भक्ति कृष्ण जी के प्रति देखकर मीराबाई जी के कहने पर बहुत से कृष्ण भक्त अपने महलों में कृष्ण जी का मंदिर बनवा देते थे और वहां साधु-संतों का आना-जाना शुरू हो जाता था।
भोजराज के निधन के बाद सिंहासन पर बैठने वाले विक्रमजीत को मीराबाई का साधु संतों के साथ उठना बैठना बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा था। तब उन्होंने उन्हें मारने की कोशिश की और उनमें से दो प्रयासों का चित्रण मीराबाई जी ने अपनी कविताओं में किया है।
एक बार फूलों की टोकरी को खोलने पर विषैला सांप भेजा गया, लेकिन उस टोकरी में सांप की जगह श्री कृष्ण जी की मूर्ति निकली। कहते हैं ना सच्चे भक्तों की रक्षा तो स्वयं भगवान करते हैं। एक अन्य अवसर पर उन्हें खीर के रूप में पीने के लिए विष का प्याला दिया गया, लेकिन उसे पीने के बाद भी मीराबाई को कुछ नहीं हुआ ऐसी भी मीराबाई की कृष्ण भक्ति।
मीराबाई की रचित काव्य -
मीराबाई की काव्यानुभूति आत्मनिष्ठ और अनन्य है। उसमें सहजता के साथ गंभीरता है। वह अपने इष्ट देव श्री कृष्ण के प्रति सर्व समर्पण के भाव से अपने को सर्वथा प्रस्तुत करती है। मीराबाई ने अपने इष्ट का नाम अपने सदु्र की कृपा से ही प्राप्त किया है।
मीराबाई की भक्ति काव्य रचना संसार लौकिक और पारलौकिक दोनों ही दृष्टियों से श्रेष्ठ और रोचक है। मीराबाई की काव्य रचना सूत्र तो अलौकिक प्रतीको और रूपों से बना हुआ है। लेकिन उसका उद्देश्य पारलौकिक चिंतन धारा के अनुकूल है। इसलिए वह दोनों ही दृष्टि उसे अपनाने योग्य हैं।
मीराबाई की मृत्यु -
मीराबाई की मृत्यु के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलते हैं और उनकी मृत्यु को एक रहस्य ही बताया गया है। कहा जाता है कि मीराबाई कृष्ण जी की परम भक्त थी और कहा जाता है कि 1547 में द्वारका में वह कृष्ण भक्त करते-करते श्री कृष्ण जी की मूर्ति में समा गई।
उपसंहार -
इस प्रकार हम देखते हैं कि मीराबाई एक सहज और सरल वक्त धारा के स्रोत से उत्पन्न हुई विरहिणी कवयित्री थी। जिनकी रचना से संसार में आज भी अनेक का बुके रचियिता प्रभावित हैं भक्तिकाल की इस असाधरण कवयित्री से आधुनिक काल की महादेवी वर्मा इतनी अधिक प्रभावित हुई कि उन्हें आधुनिक युग की मीरा की संज्ञा प्रदान की गई।
इस प्रकार मीराबाई का प्रभाव अत्यंत अद्भुत और आदित्य था। जिसका अनुसरण आज भी किया जाता है। उनके लिखे काव्य श्री कृष्ण की सभी लीलाओं की व्याख्या करते हैं। उनके काव्य यही दर्शाते हैं कि मीराबाई ने श्री कृष्ण जी को अपना पति मानकर उनकी पूजा और उपासना करि।
और तो और यहां तक कहा जाता है कि मीराबाई पूर्व जन्म में वृंदावन की एक गोपी थी। और उन दिनों वह राधा जी की सहेली थी वह मन ही मन श्री कृष्ण जी से प्रेम करती थी। श्री कृष्ण का विवाह होने के बाद भी उनका लगाओ श्री कृष्ण के प्रति कम नहीं हुआ और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।
कहा जाता है कि उसी गोपी ने मीराबाई के रूप में जन्म फिर से लिया और कृष्ण भक्ति में लीन हो गई और अंत में कृष्ण जी में ही समा गई।
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