विकास की अवधारणा और इसका अधिगम से संबंध / concept of development and its relationship with learning ctet

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विकास की अवधारणा और इसका अधिगम से संबंध / concept of development and its relationship with learning ctet

विकास की अवधारणा और इसका अधिगम से संबंध /concept of development and its relationship with learning ctet

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विकास की अवधारणा- 


विकास की अवधारणा विकास की प्रक्रिया एक अविरल क्रमिक तथा सतत प्रक्रिया होती है। विकास की प्रक्रिया में बालक का शारीरिक, क्रियात्मक, संज्ञानात्मक, भाषागत, संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास होता है। विकास की प्रक्रिया में रुचियों , आदतों, दृष्टिकोणों जीवन मूल्यों, स्वभाव, व्यक्तित्व, व्यवहार इत्यादि का विकास भी शामिल है।


बाल विकास का तात्पर्य है- बालक के विकास की प्रक्रिया। बालक के विकास की प्रक्रिया उसके जन्म से पूर्व गर्भ में ही प्रारंभ हो जाती है। विकास की इस प्रक्रिया में वह गर्भावस्था, शैशवावस्था, बाल्यावस्था ,किशोरावस्था ,प्रौढ़ावस्था इत्यादि कई अवस्थाओं से गुजरते हुए परिपक्वता की स्थिति प्राप्त करता है।


बाल विकास के अध्ययन में प्राया निम्नलिखित बातों को शामिल किया जाता है


1- जन्म से पूर्व एवं जन्म लेने के बाद परिपक्व होने तक बालक में किस प्रकार के परिवर्तन होते हैं?


2- बालक में होने वाले परिवर्तनों का विशेष आयु के साथ क्या संबंध होता है?


3- आयु के साथ होने वाले परिवर्तनों का क्या स्वरूप होता है? 


4- बालकों में होने वाले उपरोक्त परिवर्तनों के लिए कौन से कारक जिम्मेदार होते हैं?


5- बालक में समय-समय पर होने वाले उपरोक्त परिवर्तन उसके व्यवहार को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं?


6- क्या पिछले परिवर्तनों के आधार पर बालक में भविष्य में होने वाले गुणात्मक एवं परिमाणात्मक परिवर्तनों की भविष्यवाणी की जा सकती है?


7- क्या सभी बालकों में वृद्धि एवं विकास संबंधी परिवर्तनों का स्वरूप एक जैसा होता है अथवा व्यक्तिगत भिन्नता के अनुरूप इन में अंतर होता है?


8- बालकों में पाए जाने वाले व्यक्तिगत विभिन्नताओं के लिए किस प्रकार के अनुवांशिक एवं परिवेशजन्य प्रभाव उत्तरदाई होते हैं?


9- बालक के गर्भ में आने के बाद निरंतर प्रगति होती रहती है। इस प्रगति विशेष में क्या स्वरूप होता है?


10- बालक की रूचियों ,आदतों, दृष्टिकोणों, जीवन मूल्यों, स्वभाव तथा उच्च व्यक्तित्व एवं व्यवहार- गुणों में जन्म के समय से ही जो निरंतर परिवर्तन आते रहते हैं उनका विभिन्न आयु वर्ग तथा अवस्था विशेष में क्या स्वरूप होता है तथा इस परिवर्तन की प्रक्रिया की क्या प्रकृति होती है?


वृद्धि एवं विकास में अंतर- वृद्धि एवं विकास का प्रयोग लोग प्रायः पर्यायवाची शब्दों के रूप में करते हैं। अवधाणात्मक रूप से देखा जाए, दोनों में अंतर होता है। इस अंतर को हम अगर प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं- 


क्र.सं.

वृद्धि

विकास

1.

वृद्धि शब्द का प्रयोग परिमाणात्मक परिवर्तनों जैसे; बच्चे के बड़े होने के साथ उसके आकार, लंबाई, ऊंचाई इत्यादि के लिए होता है।

विकास शब्द का प्रयोग परिमाणात्मक परिवर्तनों के साथ-साथ व्यावहारिक परिवर्तनों; जैसे- कार्यकुशलता, कार्यक्षमता, व्यवहार में सुधार इत्यादि के लिए भी होता है।

2.

वृद्धि विकास की प्रक्रिया का एक चरण होता है इसका क्षेत्र सीमित होता है।

विकास अपने आप में एक विस्तृत का अर्थ रखता है वृद्धि इसका एक भाग होता है।

3.

वृद्धि की प्रक्रिया आजीवन नहीं चलती, बालक के परिपक्व होने के साथ ही यह रुक जाती है।

विकास एक सतत प्रक्रिया है। बालक के परिपक्व होने के बाद भी यह चलती रहती है।

4.

बालक की शारीरिक वृद्धि हो रही है इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि उसमें विकास भी हो रहा है।

बालक में विकास के लिए भी वृद्धि आवश्यक नहीं है।


मानव विकास की अवस्थाएं-

मानव विकास एक सतत प्रक्रिया है। शारीरिक विकास तो एक सीमा (परिपक्वता प्राप्त करने) के बाद रुक जाता है, किन्तु मनोशारीरिक क्रियाओं में विकास निरंतर होता रहता है। इन मनोशारीरिक क्रियाओं के अंतर्गत मानसिक, भाषायी , संवेगात्मक, सामाजिक एवं चारित्रिक विकास आते हैं। इनका विकास विभिन्न स्तरों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। इन आयु  स्तरों को मानव विकास की अवस्थाएं कहते हैं। भारतीय मनीषियों के ने मानव विकास की अवधारणा को 7 कालों में विभाजित किया है


1.गर्भावस्था - गर्भाधान से जन्म तक

2.शैशवावस्था- जन्म से 5 वर्ष तक

3.बाल्यावस्था- 5 वर्ष से 12 वर्ष तक

4.किशोरावस्था -12 वर्ष से 18 वर्ष तक

5.युवावस्था- 18 वर्ष से 25 वर्ष तक

6.प्रौढ़ावस्था- 25 वर्ष से 55 वर्ष तक

7.वृद्धावस्था- 55 वर्ष से मृत्यु तक


इस समय अधिकतर विद्वान मानव विकास का अध्ययन निम्नलिखित 4 अवस्थाओं के अंतर्गत करते हैं


1.शैशवावस्था जन्म से 6 वर्ष तक

2.बाल्यावस्था 6 से 12 वर्ष तक

3.किशोरावस्था 12 वर्ष से 18 वर्ष तक

4.वयस्कावस्था 18 वर्ष से मृत्यु तक


शिक्षा की दृष्टि से प्रथम तीन अवस्थाएं महत्वपूर्ण है, इसीलिए शिक्षा मनोविज्ञान में इन्हीं तीन अवस्था में होने वाले मानव विकास का अध्ययन किया जाता है।


शैशवावस्था


जन्म से 6 वर्ष तक की अवस्था को शेष अवस्था कहा जाता है। इसमें जन्म से 3 वर्ष तक बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास तेजी से होता है।  शैशवावस्था में अनुकरण एवं दोहराने की तीव्र प्रवृत्ति बच्चों में पाई जाती है। इसी काल में बच्चों का सामाजिकरण भी प्रारंभ हो जाता है। इस काल में जिज्ञासा की तीव्र प्रवृत्ति बच्चों में पाई जाती है ।मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से यह काल भाषा सीखने की सर्वोत्तम अवस्था है। इन्हीं सब कारणों से यह काल शिक्षा की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।


बाल्यावस्था


6 से 12 वर्ष तक की अवस्था को व्यवस्था कहा जाता है। बाल्यावस्था के प्रथम चरण 6 से 9 वर्ष में बालकों की लंबाई एवं भार दोनों बढ़ते हैं। इस काल में बच्चों में चिंतन  एवं तर्क शक्तियों का विकास होता है। इस काल के बाद से बच्चे पढ़ाई में रुचि लेने लगते हैं। शैशवावस्था में बच्चे जहां बहुत तीव्र गति से सीखते हैं वही व्यवस्था में सीखने की गति मंद हो जाती है, किंतु उनके सीखने का क्षेत्र शैशवास्था की तुलना में विस्तृत हो जाता है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से इस अवस्था में बच्चों की शिक्षा के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग करना चाहिए।


किशोरावस्था


12 वर्ष 18 वर्ष तक की अवस्था को किशोरावस्था कहा जाता है। यह वह समय होता है जिसमें व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर उन्मुख होता है। इस अवस्था में किशोरों की लंबाई एवं भार दोनों में वृद्धि होती है, साथ ही मांसपेशियों में भी वृद्धि होती है। 12 से 14 वर्ष की आयु के बीच लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की लंबाई एवं मांस पेशियों में तेजी से वृद्धि होती है। एवं 14 से 18 वर्ष की आयु के बीच लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की लंबाई एवं मांस पेशियां तेजी से बढ़ती हैं। इस काल में प्रजनन अंग विकसित होने लगते हैं एवं उनकी काम की मूल प्रवृत्ति जागृत होती है। इस अवस्था में किशोर किशोरियों की बुद्धि का पूर्ण विकास हो जाता है, उनके ध्यान केंद्रित करने की क्षमता बढ़ जाती है, स्मरण शक्ति बढ़ जाती है एवं उनमें स्थायित्व आने लगता है। इस अवस्था में मित्र बनाने की प्रवृत्ति तीव्र होती है। एवं मित्रता में प्रगण तभी इस दौरान सामान्य सी बात है। इस तरह इस अवस्था में व्यक्ति के सामाजिक संबंधों में वृद्धि होती है। यौन समस्या इस अवस्था की सबसे बड़ी समस्या होती है। यह अवस्था में नशा या अपराध की ओर उन्मुख होने की अधिक संभावना रहती है, इसीलिए इस अवस्था को जीवन के तूफान का काल भी कहा जाता है।


विकास को प्रभावित करने वाले कारक- विकास एक सतत, लगातार तथा ना रुकने वाली प्रक्रिया है। विकास में बच्चे में आए सभी परिमाणात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तनों का संकेत मिलता है। यह जन्म से लेकर मृत्यु तक चलता रहता है। विकास पर मां-बाप, घर का वातावरण, आस-पड़ोस, बाहर का वातावरण, सीखने, परिपक्वता तथा आनुवंशिक कारकों का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। यह सभी बातें बच्चे के विकास पर प्रत्यक्ष रूप से अपनी छाप छोड़ते हैं।


अधिगम- अधिगम का अर्थ है अपने अनुभव के अनुसार अपने भविष्य के व्यवहार में परिवर्तन लाना अर्थात अपने आप को बदल लेना। अनुभव द्वारा व्यक्ति अपने वातावरण के अनुसार विशेष परिस्थितियों के लिए विशेष प्रकार की परिस्थिति का चुनाव कर लेता है। अधिगम एक प्रकार का मानसिक परिवर्तन है। इसे एक प्रकार की मानसिक अवस्था भी कहा जा सकता है। अलग-अलग मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम से अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं-


गेट्स(Gates) के अनुसार- अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपांतर लाना ही अधिगम है।


ई.ए.पील  (E. A. Peel) के अनुसार-   अधिगम व्यक्ति ने एक परिवर्तन है जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।


विकास के विभिन्न आयाम


बाल विकास को वैसे तो कई आयामों में विभाजित किया जा सकता है, किंतु बाल विकास एवं बाल मनोविज्ञान के अध्ययन के दृष्टिकोण से इसके निम्नलिखित आयाम महत्वपूर्ण हैं


1.शारीरिक विकास

2.मानसिक विकास

3.भाषाई विकास

4.सामाजिक विकास

5.सांवेगिक विकास

6.मनोगत्यात्मक विकास


शारीरिक विकास- इसके अंतर्गत बालक के शरीर के बाहर एवं आंतरिक अवयवों  का विकास शामिल है। शरीर के बाह्य परिवर्तन जैसे- ऊंचाई, शारीरिक अनुपात में वृद्धि इत्यादि स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। आंतरिक अवयवों के परिवर्तन बाह्य रुप से दिखाई तो नहीं पड़ते, किंतु शरीर के भीतर उनका समुचित विकास होता रहता है। शारीरिक वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया व्यक्तित्व के उचित समायोजन और विकास के मार्ग में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रारंभ में शिशु अपने हर प्रकार के कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, धीरे-धीरे विकास की प्रक्रिया के फल स्वरुप वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम होता जाता है। शारीरिक वृद्धि एवं विकास पर बालक के आनुवांशिक गुणों का प्रभाव देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त बालक के परिवेश एवं उसकी देखभाल का भी शारीरिक वृद्धि एवं विकास पर प्रभाव पड़ता है। यदि बच्चे को पर्याप्त मात्रा में पोषक आहार उपलब्ध नहीं हो रहे हैं तो उसके विकास के सामान्य गति की आशा कैसे की जा सकती है?


शारीरिक वृद्धि एवं विकास के बारे में शिक्षकों को पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। इसी जानकारी के आधार पर वह बालक के स्वास्थ्य अथवा इससे संबंधित अन्य समस्याओं से अवगत हो सकता है। बालक के वृद्धि एवं विकास के बारे में शिक्षकों को पर्याप्त जानकारी इसलिए भी रखना अनिवार्य है, क्योंकि बच्चों की रुचियां ,इच्छाएं ,दृष्टिकोण एवं एक तरह से उसका पूर्ण व्यवहार शारीरिक वृद्धि एवं विकास पर ही निर्भर करता है। बच्चों की शारीरिक वृद्धि एवं विकास के सामान्य ढांचे से परिचित होकर अध्यापक यह जान सकता है कि एक विशेष आयु स्तर पर बच्चों से क्या आशा की जा सकती है?


मानसिक विकास - संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य बालक की उन सभी मानसिक योग्यता एवं क्षमताओं में वृद्धि और विकास से है जिसके परिणाम स्वरुप वह अपने निरंतर बदलते हुए वातावरण में ठीक प्रकार समायोजन करता है और विभिन्न प्रकार की समस्याओं को सुलझाने में अपने मानसिक शक्तियों का पर्याप्त उपयोग कर पाता है। कल्पना करना ,स्मरण करना ,विचार करना ,निरीक्षण करना, समस्या समाधान करना, निर्णय लेना इत्यादि की योग्यता संज्ञानात्मक विकास के फलस्वरुप ही विकसित होते हैं। जन्म के समय बालक में इस प्रकार की योग्यता का अभाव होता है, धीरे-धीरे आयु बढ़ने के साथ-साथ उसमें मानसिक विकास की गति भी बढ़ती रहती है। संज्ञानात्मक विकास के बारे में शिक्षकों को पर्याप्त जानकारी इसलिए होनी चाहिए, क्योंकि इसके अभाव में वह बालक की इससे संबंधित समस्याओं का समाधान नहीं कर पाएगा। यदि कोई बालक मानसिक रूप से कमजोर है, तो इसके क्या कारण हैं, यह जानना उसके उपचार के लिए आवश्यक है। संज्ञानात्मक विकास के बारे में पर्याप्त जानकारी होने से विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रम ,सहगामी क्रियाओं तथा अनुभवों के चयन और नियोजन में सहायता मिलती है। किस विधि और तरीके से पढ़ाया जाए, सहायक सामग्री तथा शिक्षण साधन का प्रयोग किस प्रकार किया जाए, शैक्षणिक वातावरण किस प्रकार का हो, सब के निर्धारण में संज्ञानात्मक विकास के विभिन्न पहलुओं की जानकारी शिक्षकों के लिए सहायक साबित होती है। विभिन्न अवस्थाओं और स्तर पर बच्चों की मानसिक वृद्धि और विकास को ध्यान में रखते हुए उपर्युक्त पाठ्यक्रम पुस्तके तैयार करने में भी इससे सहायता मिल सकती है।


भाषाई विकास- 


 भाषायी विकास भाषा का विकास एक प्रकार का संज्ञानात्मक विकास ही है। मानसिक योग्यता की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भाषा का तात्पर्य होता है वह सांकेतिक साधन, जिसके माध्यम से बालक अपने विचारों एवं भावों का सम्प्रेषण करता है तथा दूसरों के विचारों एवं भावों को समझता है। भाषायी योग्यता के अन्तर्गत मौखिक अभिव्यक्ति, सांकेतिक अभिव्यक्ति, लिखित अभिव्यक्ति शामिल हैं। भाषायी योग्यता एक कौशल है, जिसे अर्जित किया जाता है। इस कौशल को अर्जित करने की प्रक्रिया बालक के जन्म के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है। अनुकरण, वातावरण के साथ अनुक्रिया तथा शारीरिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति की माँग इसमें विशेष भूमिका निभाती है। यह विकास बालक में धीरे-धीरे एक निश्चित क्रम में होता है। जन्म से लेकर आठ माह तक बालक को किसी शब्द की जानकारी नहीं होती। 9 माह से 12 माह के बीच वह तीन या चार शब्दों को समझने लगता है। डेढ़ वर्ष के भीतर उसे 10 से 12 शब्दों की जानकारी हो जाती है। 2 वर्ष की आयु तक उसे दो सौ से अधिक शब्दों की जानकारी हो जाती है। 3 वर्ष के भीतर ही बालक लगभग एक हजार शब्दों को समझने लगता है। इसी तरह उसमें भाषायी विकास होते रहते है और 16 वर्ष की आयु तक बालक लगभग एक लाख शब्दों को समझने की योग्यता विकसित कर लेता है। भाषायी विकास की प्रक्रिया में लिखने एवं पढ़ने का भी ज्ञान उसमें धीरे-धीरे ही होता है। बाल्यावस्था में वह धीरे-धीरे एक-एक शब्द को पढ़ता एवं लिखता है, उसके बाद उसके इन कौशलों में गति आती जाती है।


शिक्षकों को भाषा के विकास की प्रक्रिया का सही ज्ञान होना इसलिए अनिवार्य है, क्योंकि इसी के आधार पर बालक की भाषा से सम्बन्धित समस्याएँ; जैसे—अस्पष्ट उच्चारण, गलत उच्चारण, तुतलाना, हकलाना, तीव्र अस्पष्ट वाणी इत्यादि का समाधान कर सकता है। बालक की शिक्षा में लिखने, पढ़ने एवं बोलने की योग्यता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है। इन सभी योग्यताओं के विकास में भाषा के विकास की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है इसलिए इसकी जानकारी शिक्षकों को अवश्य होनी चाहिए।


सामाजिक विकास- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। बालक में सामाजिक भावनाओं का विकास जन्म के बाद ही शुरू होता है। वृद्धि एवं विकास के अन्य पहलुओं की तरह ही सामाजिक गुण भी बच्चे में धीरे-धीरे पनपते हैं। इन गुणों के विकास की प्रक्रिया, जो बच्चे के सामाजिक व्यवहार में वांछनीय परिवर्तन लाने का कार्य सम्पन्न करती है, सामाजिक विकास अथवा समाजीकरण के नाम से जानी जाती है। सामाजिक वृद्धि एवं विकास का अर्थ होता है अपने साथ एवं दूसरों के साथ भली-भाँति समायोजन करने की योग्यता । सामाजिक विकास की प्रक्रिया व्यक्ति को सामाजिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों और परम्पराओं के अनुकूल आचरण करने में पूरी-पूरी सहायता करती है और इस तरह से अपने सामाजिक परिवेश में ठीक प्रकार समायोजित होने में समर्थ बनती है। शारीरिक ढांचा, स्वास्थ्य, बुद्धि, संवेगात्मक विकास, परिवार पारिवारिक वातावरण, सामाजिक वातावरण इत्यादि व्यक्ति के सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं। 


शिक्षा के कई उद्देश्यों में एक बालक का सामाजिक विकास भी होता है। यदि सामाजिक विकास के अन्य पहलुओं की जानकारी शिक्षकों को ना हो तो बालक का पर्याप्त विकास नहीं हो सकता एवं शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं होगा, इसलिए शिक्षकों को बालक में सामाजिक विकास की प्रक्रिया की पूरी जानकारी होनी चाहिए।

 

सांवेगिक  विकास - 


संवेग जिसे भाव भी कहा जाता है का अर्थ होता है ऐसी अवस्था जो व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करती है। भय, क्रोध, घृणा, आश्चर्य, स्नेह, विषाद, इत्यादि संवेग के उदाहरण हैं। बालक में आयु बढ़ने के साथ ही इन संवेगों का विकास भी होता रहता है। संवेगात्मक विकास मानव वृद्धि एवं विकास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। व्यक्ति का संवेगात्मक व्यवहार उसके शारीरिक वृद्धि एवं विकास को ही प्रभावित नहीं, बल्कि बौद्धिक, सामाजिक एवं नैतिक विकास को भी प्रभावित करता है। प्रत्येक संवेगात्मक अनुभूति व्यक्ति में कई प्रकार के शारीरिक और शरीर सम्बन्धी परिवर्तनों को जन्म देती है।


संवेगात्मक विकास के कई कारक होते हैं, इन कारकों की जानकारी अध्यापकों को होनी चाहिए। जैसे भय का कारण क्या है? यह जाने बिना बालक के भय को दूर नहीं किया जा सकता। बालक के सन्तुलित विकास में उसके संवेगात्मक विकास की अहम् भूमिका होती है। संवेगात्मक विकास के दृष्टिकोण से बालक के स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास पर पूरा-पूरा ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है। बालक के संवेगात्मक विकास पर पारिवारिक वातावरण भी बहुत प्रभाव डालता है। विद्यालय के परिवेश और क्रिया-कलापों को उचित प्रकार से संगठित कर अध्यापक बच्चों के संवेगात्मक विकास में भरपूर योगदान दे सकते हैं। बालकों को शिक्षकों का पर्याप्त सहयोग एवं स्नेह मिलना उनके व्यक्तित्व के विकास के दृष्टिकोण से आवश्यक है। इसी प्रकार यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि बालक के स्वाभिमान को कभी ठेस न पहुँचे। इस तरह संवेगात्मक विकास के कई पहलुओं को ध्यान में रखकर ही बालक का सर्वांगीण विकास किया जा सकता है।


मनोगत्यात्मक विकास- 


 क्रियात्मक विकास का अर्थ होता है- व्यक्ति की क्रियात्मक शक्तियों, क्षमताओं या योग्यताओं का विकास। क्रियात्मक शक्तियाँ, क्षमताएँ या योग्यताओं का अर्थ होता है ऐसी शारीरिक गतिविधियाँ या क्रियाएँ जिनको सम्पन्न करने के लिए मांसपेशियों एवं तन्त्रिकाओं की गतिविधियों के संयोजन की आवश्यकता होती है; जैसे-चलना, बैठना, इत्यादि। एक नवजात शिशु ऐसे कार्य करने में अक्षम होता है। शारीरिक वृद्धि एवं विकास के साथ ही उम्र बढ़ने के साथ उसमें इस तरह की योग्यताओं का भी विकास होने लगता है। क्रियात्मक विकास बालक के शारीरिक विकास, स्वस्थ रहने, स्वावलम्बी होने एवं उचित मानसिक विकास में सहायक होता है। इसके कारण बालक को आत्मविश्वास अर्जित करने में भी सहायता मिलती है। पर्याप्त क्रियात्मक विकास के अभाव में बालक में विभिन्न प्रकार के कौशलों के विकास में बाधा पहुँचती है।


क्रियात्मक विकास के स्वरूप एवं उसकी प्रक्रिया का ज्ञान होना शिक्षकों के लिए आवश्यक है। इसी ज्ञान के आधार पर ही वह बालक में विभिन्न कौशलों का विकास करवाने में सहायक हो सकता है। क्रियात्मक विकास के ज्ञान से शिक्षकों को यह भी पता चलता है कि किस आयु विशेष या अवस्था में बालक में किस प्रकार के कौशलों की योग्यता अर्जित करने की योग्यता होती है। जिन बालकों में क्रियात्मक विकास सामान्य से कम होता है, उनके समायोजन एवं विकास हेतु विशेष कार्य करने की आवश्यकता होती है।



















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