आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की जीवनी || biography of Achar Mahavir Prasad Dwivedi in Hindi
परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण इनकी शिक्षा सुचारू रूप से संपन्न नहीं हो सकी। स्वाध्याय से ही इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, मराठी, नहीं फारसी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया और तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएं भेजने लगे। प्रारंभ में इन्होंने रेलवे के तार विभाग में नौकरी की, परंतु बाद में नौकरी छोड़कर पूरी तरह साहित्य सेवा में जुट गए। 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक का पदभार संभालने के लिए इन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा से हिंदी साहित्य जगत को आलोपित किया।
द्विवेदी जी का सबसे महत्वपूर्ण कार्य था – हिंदी भाषा का संस्कार और परिष्कार। इन्होंने आरंभिक युग की स्वच्छंदता को नियंत्रित किया। द्विवेदी जी ने हिंदी भाषा को व्याकरण सम्मत बनाने, उसके रूप को निखारने-संवारने, उसके शब्द भंडार को बढ़ाने और उसको सशक्त, समर्थ एवं परिमार्जित बनाने का महान कार्य किया। सन् 1931 ई० में 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' ने इन्हें 'आचार्य' की तथा 'हिंदी साहित्य सम्मेलन' ने 'वाचस्पति' की उपाधि से विभूषित किया।
सन् 1938 ईस्वी में हिंदी के यशस्वी साहित्यकार आचार्य द्विवेदी जी का निधन हो गया।
साहित्यिक परिचय — भारतेंदु जी के पश्चात द्विवेदी जी दूसरे प्रवर्तक साहित्यकार के रूप में विख्यात हुए। 'सरस्वती' के संपादक के रूप में इन्होंने हिंदी साहित्य की अमूल्य सेवा की। तत्कालीन साहित्य, भाषा और शैली में इन्हें जो त्रुटियां और दुर्बलताएं दिखाई दीं, 'सरस्वती' के माध्यम से उन्हें दूर करने का अथक प्रयास किया। इन्होंने प्रतिभा संपन्न नए लेखकों को प्रेरित किया और उनके साहित्य में सुधार किए। उनके द्वारा संपादित 'सरस्वती' पत्रिका वास्तव में इस युग की साहित्यिक चेतना का प्रतीक बन गई थी। द्विवेदी जी ने अनेक निबंधों की रचना भी की। इनके निबंधों में आलोचनात्मक निबंधों की संख्या सर्वाधिक है। ऐसे निबंधों में उनकी निर्भीकता और तथ्यात्मकता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है।
आज भाषा और शैली का जो परिष्कृत और विकसित रूप दिखाई देता है, वह द्विवेदी जी के ही प्रयासों का परिणाम है। वे भाषा के महान् शिल्पी थे। एक चतुर शिल्पी की भांति उन्होंने हिंदी खड़ीबोली को सवांरा और उसमें प्राण-प्रतिष्ठापना भी की। द्विवेदी जी ने नए-नए लेखकों और कवियों को प्रभावपूर्ण लेखन की दृष्टि से दक्ष बनाया। इन्होंने हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार करके जनसाधारण के हृदय में हिंदी के प्रति प्रेम जागृत किया।
कृतियां – द्विवेदी जी ने 50 से भी अधिक ग्रंथों तथा सैकड़ों निबंधों की रचना की। उनकी प्रमुख कृतियां इस प्रकार हैं–
काव्य संग्रह — काव्य-मंजूषा।
निबंध – द्विवेदी जी के सर्वाधिक निबंध 'सरस्वती' तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं एवं निबंध-संग्रहों के रूप में प्रकाशित हुए हैं।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की जीवनी || biography of Achar Mahavir Prasad Dwivedi in Hindi |
आलोचना – नाट्यशास्त्र, हिंदी नवरत्न, रसज्ञ रंजन, साहित्य-सीकर, विचार-विमर्श, साहित्य-संदर्भ, कालिदास एवं उनकी कविता, कालिदास की निरंकुशता आदि।
अनूदित – मेघदूत, बेकन-विचारमाला, शिक्षा, स्वाधीनता, विचार-रत्नावली, कुमारसंभव, गंगालहरी, विनय-विनोद, रघुवंश, किरातार्जुनीय, हिंदी महाभारत आदि।
विविध – जल-चिकित्सा, संपत्तिशास्त्र, वक्तृत्व-कला आदि।
संपादन — 'सरस्वती' मासिक पत्रिका।
भाषा-शैली : भाषा – द्विवेदी जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, किंतु वे निबंधों में केवल संस्कृत के शब्दों को ही रखने के पक्षपाती नहीं थे। इन्होंने अन्य भाषाओं के लोक प्रचलित शब्दों के प्रयोग को भी महत्व प्रदान किया। द्विवेदी जी की भाषा के विविध रूप दिखाई देते हैं। कहीं उनकी भाषा बोलचाल के बिल्कुल निकट है तो कहीं शुद्ध साहित्यिक और क्लिष्ट संस्कृतमयी। द्विवेदी जी ने अपनी बात को प्रभावी बनाने तथा विषय की गहराई तक पहुंचने के लिए संस्कृत की सूक्तियों का प्रयोग भी किया है। साथ ही लोकोक्तियों और मुहावरों से अपनी भाषा का श्रंगार कर उसे प्रभावशाली बनाया। द्विवेदी जी विषय के अनुसार भाषा का प्रयोग करने में पारंगत थे। इनके आलोचनात्मक निबंधों की भाषा शुद्ध संस्कृतनिष्ठ है तो समसामयिक आलोचनाओं में मिश्रित भाषा का प्रयोग हुआ है। गंभीर तथा विवेचनात्मक निबंधों की भाषा शुद्ध साहित्यिक है, तो भावात्मक निबंधों की भाषा काव्यात्मक एवं आलंकारिक।
शैली – द्विवेदी जी ने अपनी रचनाओं में निम्नलिखित शैलियों का प्रयोग किया है–
भावात्मक शैली – द्विवेदी जी ने भावात्मक शैली में अनेक निबंध लिखे हैं। इनमें विचारों की सरस अभिव्यक्ति हुई है। इस शैली में अनुप्रास की छटा सर्वत्र व्याप्त है। कोमलकांत पदावली का प्रयोग इसकी एक अन्य प्रमुख विशेषता है।
विचारात्मक शैली – द्विवेदी जी की विचारात्मक शैली में तत्सम प्रधान भाषा का प्रयोग हुआ है, मुहावरों का प्रयोग कम हुआ है और हास्य-व्यंग का भी अभाव है। साहित्यिक महत्व के निबंधों की रचना द्विवेदी जी ने इसी शैली में की है।
गवेषणात्मक शैली – द्विवेदी जी के साहित्यिक निबंधों में गवेषणात्मक शैली के दर्शन होते हैं। इस शैली पर आधारित निबंधों में उर्दू के शब्दों का अभाव है। यह शैली अपेक्षाकृत गाम्भीर्य लिए हुए है।
संवादात्मक शैली – अपने निबंधों के बीच में द्विवेदी जी कहीं-कहीं पाठकों से वार्तालाप करते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे स्थलों पर संवादात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।
वर्णनात्मक शैली – द्विवेदी जी ने बड़ी संख्या में वर्णनात्मक निबंध लिखे हैं। इनमें भौगोलिक एवं ऐतिहासिक स्थानों का वर्णन किया गया है।
व्यंग्यात्मक शैली – सामाजिक कुरीतियों पर चोट के लिए द्विवेदी जी ने व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया है। इस शैली के अंतर्गत सरल वाक्यों का प्रयोग किया गया है। कथन को प्रभावी बनाने के लिए मुहावरों का भी समुचित प्रयोग किया गया है।
हिंदी-साहित्य में स्थान – आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक साहित्यकारों में से एक थे। वे समाज और संस्कृति के क्षेत्र में अपने वैचारिक योगदान की दृष्टि से 'नवचेतना के संवाहक' के रूप में अवतरित हुए। उन्हें शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली का वास्तविक प्रणेता माना जाता है।
माता पिता - हिंदी गद्य साहित्य के युग - विधायक महावीर प्रसाद द्विवेदी के पिता का नाम श्री राम सहाय द्विवेदी था। इनके पिता पंडित राम सहाय द्विवेदी ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में साधारण सिपाही थे तथा इनकी माता जी के नाम के संबंध में कोई साक्ष्य प्रमाण प्राप्त नहीं है।
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