बाल विकास की अवस्थाएं // (stages of child development in Hindi)

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बाल विकास की अवस्थाएं // (stages of child development in Hindi)

बाल विकास की अवस्थाएं // stages of child development in Hindi

बाल विकास की अवस्थाएं // stages of child development in Hindi

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डॉक्टर जोंस के अनुसार बाल विकास की अवस्थाएं-

1- शैशवावस्था- 0 से 6 वर्ष 


2- बाल्यावस्था -6 से 12 वर्ष


 3- किशोरावस्था -12 से 18 वर्ष 


4- प्रौढ़ावस्था -18 वर्ष से मृत्यु तक


जे .एस .रास के अनुसार बाल विकास की अवस्थाएं-


1- गर्भावस्था- 0 से 9 माह 


2- शैशवावस्था- जन्म से 5 वर्ष


3-  बाल्यावस्था- 6 से 12 वर्ष


4-  किशोरावस्था- 13 से 18 वर्ष


5-  प्रौढ़ावस्था- 19 से मृत्यु तक



                      शैशवावस्था (0-5 वर्ष)


वैलेंटाइन के अनुसार- "शैशवावस्था को सीखने का आदर्श काल कहा है।"


फ्राइड के अनुसार- "मनुष्य को जो कुछ भी बनना होता है आरंभ के 4 से 5 वर्षों में ही निश्चित हो जाता है।"


एडलर के अनुसार- "बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में उसका क्या स्थान होगा।"


शैशवावस्था की विकासात्मक विशेषताएं-


1- शारीरिक तथा मानसिक विकास में तीव्रता-


शैशवावस्था में सबसे तीव्र गति से शारीरिक व मानसिक विकास होता है।


मनोवैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि जन्म से 5 वर्ष की अवस्था तक बालक के मस्तिक का 80% भाग पूरी तरह से विकसित हो जाता है।


वुड एण्ड Good enough के अनुसार- "व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है 3 वर्ष की अवस्था तक हो जाता है।"


जॉन लॉक के अनुसार- "नवजात शिशु का मस्तिष्क कोरे कागज के समान होता है जिस पर वह अनुभव लिखता है।"


2- स्वप्रेम या नार्सिसिज्म की भावना का विकास-


शैशवावस्था में बालक सबसे अधिक स्वयं से प्रेम करता है वह अपने माता पिता तथा परिवार के सदस्यों से यह अपेक्षा करता है कि वे केवल उसी से प्रेम करें।


3- मूल प्रवृत्त्यात्मक या संवेगात्मक व्यवहार-


मूल प्रवृत्तियों को ही जनजातियों के नाम से जाना जाता है मूल प्रवृत्यात्मक सिद्धांत के प्रवर्तक मैकडूगल थे।


मैकडूगल ने सामान्य मनुष्यों में मूल प्रवृत्तियों की संख्या 14 मानी है।


प्रत्येक मूल प्रवृत्ति का संबंध संवेगो से होता है।


शैशवावस्था के प्रारंभिक वर्षों में भाषा का विकास ना होने के कारण बालक संवेगो के माध्यम से अपने विचारों तथा इच्छाओं की अभिव्यक्ति करता है।


4- इंद्रियों के प्रयोग द्वारा अधिगम-


शैशवावस्था में बालक सर्वाधिक रूप से अपनी इंद्रियों का प्रयोग करके जब किसी नई वस्तु को देखता है तो उसे छूकर, देखकर, पटककर उसके संबंध में जानकारी प्राप्त करता है।


जैसल के अनुसार- "बालक प्रथम 6 वर्षों में आगामी 12 वर्षों से दोगुना सीख लेता है।"


वैलेंटाइन के अनुसार- "शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है।"


5- काम प्रवृत्ति का विकास-


 मनोवैज्ञानिक भाषा में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण को काम प्रवृत्ति माना जाता है। प्रायः शैशवावस्था में पुत्र का आकर्षण अपने माता के प्रति अधिक होता है जिसे ऑडिपस Oedipus कहा जाता है। तथा पुत्री का आकर्षण अपने पिता के प्रति अधिक होता है इलेक्ट्रा कंपलेक्स के नाम से जाना जाता है।


6- नैतिक विकास का अभाव-


नैतिकता का अर्थ सही और गलत के बीच अंतर करने की क्षमता का विकास होना 5 वर्ष की अवस्था तक बालक में सही और गलत के बीच अंतर करने की क्षमता विकसित नहीं होती है।


7 - अनुकरणात्मक प्रवृत्ति- 


अपने आसपास के लोगों का अनुकरण करके सीखते हैं।


8- सामाजिक गुणों का विकास- 


शिशु में सामाजिकता का अभाव होता है।


हरलॉक के अनुसार-" सामाजिक विकास का अर्थ सामाजिक संबंधों में परिपक्वता प्राप्त करना है।"


क्रो एण्ड क्रो के अनुसार-" जन्म के समय शिशु न तो सामाजिक प्राणी होता है और न असामाजिक परंतु वह इस स्थिति में बहुत समय तक नहीं रहता।"


जे .एस. रास के अनुसार- "कल्पना सृष्टि का नायक स्वयं बालक होता है।"


9- पर निर्भरता-

 शिशु दूसरों पर निर्भर होता है।


10- भाषाई विकास- 

बालक में भाषाई विकास दो स्तरों में होता है।


1- प्राक् भाषा विकास -0 से 15 माह तक


2- उत्तर भाषा विकास- 15 माह से आगे


शिशु के भाषा विकास में निम्न चरण होते हैं-


रुदन (रोना)- रिबल ने "रुदन को आपात श्वसन ने कहा है।"


बलबलाना - 3 से 4 माह तक द प म इत्यादि फिर 7 से 8 माह में इन इंद्रियों को दोहराने लगता है।


जैसे -दादा, पापा ,मामा 12 माह के बाद बलबलाने की ध्वनियां शब्द रूप ले लेती हैं।


विस्फोटक ध्वनि- रोते समय जो ध्वनियां निकलती हैं।


शैशवास्था में शिक्षा का स्वरूप या शैक्षिक निहितार्थ- 


•शारीरिक विकास का प्रयास


•शारीरिक दोषों का निराकरण


• अवस्था अनुकूल शिक्षा 


•आदर्शों द्वारा चरित्र निर्माण 


•क्रिया द्वारा शिक्षा जिज्ञासा की संतुष्टि


                  बाल्यावस्था (6- 12 वर्ष)


बाल्यावस्था के अन्य नाम- उत्पाती अवस्था/ गिरोह अवस्था/ निर्माणकारी काल/ संचय काल/अनोखा काल /मिथ्या परिपक्वता काल


कोल व ब्रुस के अनुसार- "बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल है वास्तव में माता-पिता के लिए बाल विकास की इस अवस्था को समझना अधिक कठिन है।"


जे .एस .रास के अनुसार- "बाल्यावस्था मिथ्या परिपक्वता का काल है।"


क्रो एंड क्रो के अनुसार- "बीसवीं शताब्दी को बालक की शताब्दी कहा जाता है।"


बाल्यावस्था की विकासात्मक विशेषताएं-


1- शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता (stability in physical and mental development)-


बाल्यावस्था में चक्राकार प्रगति पाई जाती है। इसीलिए बालक के शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता देखने को मिलती है इस अवस्था में बालक पूर्व में अर्जित ज्ञान अनुभवों तथा योग्यताओं के साथ समायोजन करता है।


•6 से 7 वर्ष के बाद बालक के शारीरिक विकास में स्थिरता आ जाती है।


•6 से 12 वर्ष के बीच बालक की लंबाई 5 से 7 सेंटीमीटर प्रति वर्ष बढ़ती है।


•बाल्यावस्था में बालकों का भार बालिकाओं से अधिक होता है।


•लंबाई की अपेक्षा बार में अधिक वृद्धि होती है।


•12 वर्ष के अंत तक भारत 80 से 95 पाउंड होता है।


•मस्तिष्क का पूर्ण विकास 1400 ग्राम हो जाता है।


•परिपक्वता या क्रियाशीलता बाद में आती है।


•6 वर्ष की आयु में बालक के दूध के दांत गिरने लगते हैं।


•12 से 13 वर्ष में सभी स्थाई दांत निकल आते हैं जिनकी संख्या 27 या 28 होती है।


•मानसिक विकास में स्थिरता परंतु मानसिक योग्यता में वृद्धि संवेदना व प्रत्यक्षीकरण की शक्ति में वृद्धि होती है।


•चिंतन व तर्कशक्ति, विश्लेषण व संश्लेषण ,समस्या समाधान का विकास होता है।


2- खेलकूद की भावना का विकास- 


बाल्यावस्था को खेलकूद की अवस्था भी कहा जाता है सर्वाधिक रूप से खेलों का विकास इसी अवस्था में होता है शैशवावस्था में बालक के खेल आत्मकेंद्रित या वस्तु केंद्रित होते हैं। जबकि बाल्यावस्था में यही खेल सामूहिक खेलों का रूप ले लेते हैं। सामूहिक खेलों को प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल ब्रुश ने तीन भागों में विभाजित किया है-


1-शारीरिक खेल 

2-मानसिक खेल /बौद्धिक खेल 

3-सामाजिक खेल /रचनात्मक खेल


3-संग्रह प्रवृत्ति का विकास-


बाल्यावस्था में बालकों में संग्रह प्रवृत्ति की भावना पाई जाती है अपनी पुरानी तथा बेकार वस्तुओं को भी भविष्य में प्रयोग करने के उद्देश्य से एक स्थान पर एकत्रित करते हैं।


4- सृजनात्मकता तथा रचनात्मकता का विकास-


बाल्यावस्था में बालकों में आत्मनिर्भरता की भावना विकसित हो जाती है बालक प्रत्येक कार्य को स्वयं अपने अनुसार करने का प्रयास करता है वह प्रत्येक कार्य कुछ अलग ढंग से करना चाहता है और यही से उसमें रचनात्मकता का विकास हो जाता है।


रचनात्मकता की तीन प्रमुख विशेषताएं होती हैं-


1-मौलिकता originality

 2-प्रवाह fluency

3- विस्तारण elaboration


5- काम प्रवृत्ति की सुप्तावस्था-


 बाल्यावस्था में बालकों में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण नहीं पाया जाता है। बालक बालक समूह में तथा बालिकाएं बालिका समूह में ही रहना तथा खेलना पसंद करती हैं।

 

6-नैतिकता का प्रारंभ- 


बाल्यावस्था को नैतिक विकास की प्रारंभिक अवस्था माना जाता है अर्थात इस अवस्था में बालक में सही और गलत के बीच अंतर करने की क्षमता विकसित हो जाती है।


7- सामाजिक विकास-


•तीव्र सामाजिक विकास होता है।

•अभिभावकों से हटने की प्रवृत्ति

•गिरोह अवस्था 

•नकार प्रवृत्ति की अवस्था

•बर्हिमुख्ता का विकास

•सामूहिक खेलों में रुचि

•निरउद्देश्य घूमने की प्रवृत्ति

•दल के प्रति वफादारी

•शिष्टाचार का विकास


8- सांवेगिक विकास-


अन्य अवस्थाओं की तुलना में इस अवस्था में बालक कम सांवेगिक गड़बड़ियां प्रस्तुत करता है।


9- भाषाई विकास- 

इस अवस्था में तत्सम तद्भव विलोम शब्द पर्यायवाची शब्द की प्रमुखता होती है वाक्य निर्माण भी इसी अवस्था में होने लगता है। बाल्यावस्था भाषाई विकास का महत्वपूर्ण काल है।


बाल्यावस्था का शैक्षिक निहितार्थ-


•भाषा विकास पर बल

•जिज्ञासा की संतुष्टि

•पाठ्य सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था

•संचयी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन

•नैतिक विकास पर बल

•क्रिया व खेल द्वारा शिक्षा

•रचनात्मकता में वृद्धि

•स्नेह व  सहानुभूति पूर्ण शिक्षा

•सामूहिक प्रवृत्ति की संतुष्टि

•शारीरिक विकास पर बल

•सामाजिक विकास पर बल

•बाल मनोविज्ञान का आवश्यक ज्ञान


                 किशोरावस्था (13 से 18 वर्ष)


किशोरावस्था के अन्य नाम- वय: अवस्था, जोड़ अवस्था, टीन एज


यह बाल्यावस्था व प्रौढ़ावस्था का संधि काल है।

किशोरावस्था अंग्रेजी के शब्द adolescence से बना है जो कि लैटिन भाषा के शब्द adolsi से बना है जिसका अर्थ होता है बढ़ाना या परिपक्वता की ओर जाना।


स्टैनले हॉल के अनुसार- "किशोरावस्था बड़े संघर्ष बना हुआ तूफान की अवस्था है।"


जरसील्ड के अनुसार-" किशोरावस्था वह समय है जिसमें एक विचारशील व्यक्ति परिपक्वता की ओर संक्रमण करता है।"


किलपैट्रिक के अनुसार- किशोरावस्था जीवन का कठिन काल है।


रास के अनुसार- किशोरावस्था शैशवावस्था का पुर्नकाल है।


क्रो एंड क्रो के अनुसार- किशोर ही वर्तमान की शक्ति और भावी आशा को प्रस्तुत करता है।


हेडो कमेटी की रिपोर्ट- 11 से 12 वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार फटना प्रारंभ हो जाता है। जिसे किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है यदि समय रहते इस ज्वार का उपयोग कर लिया और इसकी शक्ति व धारा के साथ नई यात्रा आरंभ कर दी जाए तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।



किशोरावस्था की विकासात्मक विशेषताएं-


1- शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता और परिवर्तन- 


किशोरावस्था में बालक के शारीरिक तथा मानसिक विकास में इतनी तीव्र गति से परिवर्तन होता है कि बालक उन सभी परिवर्तनों के साथ समायोजन करने में समर्थ नहीं होता है इसीलिए प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्टैनले हॉल ने संघर्ष तनाव व तूफान की अवस्था कहा है।


•किशोरावस्था शारीरिक विकास का सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है।


•भार व लंबाई में तीव्र वृद्धि होती है।


•किशोरों में पुरुषत्व के गुण व किशोरियों में नारियों के गुणों का विकास होता है।


•लंबाई में तेज परिवर्तन 12 वर्ष की लड़कियों लड़कों से अधिक लंबी होती हैं।


•बुद्धि का अधिकतम विकास कल्पना व दिवा सपनों की अधिकता होती है।



2- समूह के प्रति सक्रियता या सामूहिकता की भावना का विकास-(development of gregoriousness)


किशोरावस्था में बालक स्वयं को अपने समूह का एक सक्रिय सदस्य मानने लगता है और वह अपने समूह को सबसे अधिक महत्व देता है।


•समाजिक विकास की दृष्टि से किशोरावस्था को संक्रमण काल कहा जाता है एक किशोर ना तो बच्चा ना एक परिपक्व व्यक्ति होता है।


3- वीर पूजा या आदर्श पूजा की भावना-


किशोरावस्था में परिवार समाज या विद्यालय का कोई ना कोई व्यक्ति बालक के व्यवहार को इतना अधिक प्रभावित करता है कि बालक उसी के जैसा बनना वह दिखना चाहता  है।

धार्मिक आस्था का विकास हो जाता है।


4- देश सेवा व समाज सेवा की भावना-


किशोरावस्था में बालकों में देश सेवा व समाज सेवा की भावना अधिक मात्रा में पाई जाती है बालक बिना किसी स्वार्थ के अपने देश व समाज की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहता है।


5-तर्क, चिंतन, कल्पना तथा समस्या समस्या समाधान की अवस्था-


किशोरावस्था को मानसिक विकास का सबसे उच्चतम स्तर माना जाता है। इसी अवस्था में बालक तर्क चिंतन तथा कल्पना जैसी मानसिक शक्तियों का प्रयोग करके स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान करने लगता है। इसीलिए इसे समस्या समाधान की अवस्था भी कहा जाता है।


6- संवेग की अधिकता


7-काम वृत्ति की अधिकता


8-भावी जीवन की चिंता


9- संवेगात्मक विकास- 


सांवेगिक विकास के आधार पर ही किशोरावस्था को तनाव तूफान की अवस्था कहा गया है।


•अवस्था में तीव्र संवेगात्मक परिवर्तन दिखाई देते हैं।


•संवेग में तीव्रता जिससे बालक प्रेम / घृणा करता है।


•संवेग पर कम नियंत्रण होता है। जैसे हंसी आने पर हंस देना ,दुखी में रो देना, गुस्से में तोड़फोड़ करना ,मौन ,चुप्पी या अत्यधिक क्रोध को प्रदर्शित करना।


•कुछ संवेग में स्थायित्व जैसे देश प्रेम का स्थाई भाव ,परिवार के प्रति अभिमान ,दया भाव ,सौंदर्य भाव, काम प्रवृत्ति की अधिकता


10-भाषाई विकास- 


•भाषण, लेख ,निबंध ,कविता ,कहानी एवं पत्र लेखन आदि की कुशलता  आ जाती है।


•व्याकरण व वाक्य विन्यास का पूर्ण विकास हो जाता है।


•कक्षा 9 तक का शब्दकोश 8000 तक होता है।


•स्थिरता व समायोजन का अभाव होता है।


•रुचियों में परिवर्तन आ जाता है।


 •अपराध प्रवृत्ति का विकास हो जाता है।


•मानसिक स्वतंत्रता व रुढियों का खंडन।


किशोरावस्था की प्रमुख समस्याएं-


•समायोजन की समस्याएं


•नवीन संबंध स्थापन में समस्या


•समाज विरोधी प्रवृत्तियां


•आपराधिक प्रवृत्तियां


•अस्तव्यस्त मनोदशा


•अनिश्चित स्थिति


•निर्णय ना ले पाना


•पारिवारिक कठिनाइयां


•तीव्र शारीरिक विकास


•संवेगों में परिवर्तन


•दृष्टिकोण में अस्थिरता


किशोरावस्था के शैक्षिक निहितार्थ-


•मूल प्रवृत्तियों का शोधन व मार्गान्तीकरण


•शैक्षिक व्यक्तिगत व व्यवसायिक निर्देशन की आवश्यकता।


•किशोर व किशोरियों के लिए भिन्न भिन्न पाठ्यक्रम


•यौन शिक्षा का प्रबंधन


•किशोर के प्रति वयस्क सा व्यवहार


•शारीरिक, मानसिक ,सामाजिक ,धार्मिक, नैतिक शिक्षा का प्रबंधन।


















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