महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय | Maharshi Dayanand Saraswati Biography in Hindi
स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक धर्म में विश्वास रखते थे। उन्होंने राष्ट्र में व्याप्त कुरीतियों एवं अंधविश्वासों का सदर विरोध किया। उन्होंने समाज को नई दिशा एवं वैदिक ज्ञान का महत्व समझाया उन्होंने कर्म और कर्मों के फल को ही जीवन का मूल सिद्धांत बताया। यह एक महान विचारक थे, उन्होंने अपने विचारों से समाज को धार्मिक आडम्बर से दूर करने का प्रयास किया। यह एक महान देशभक्त थे, जिन्होंने शिवराज का संदेश दिया, जिसे बाद में अपनाया और शिवराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, का नारा दिया देश के कई महान सपूत स्वामी दयानंद सरस्वती जी के विचारों से प्रेरित थे और उनके दिखाए मार्ग पर चलकर ही उन सपूतों ने देश को आजादी दिलाई।
इनका प्रारंभिक नाम मूल शंकर अंबा शंकर तिवारी था, इनका जन्म 12 फरवरी 1824 को टर्न करा गुजरात में हुआ था। यह एक ब्राह्मण कुल से थे। पिता एक समृद्ध नौकरी पेशा व्यक्ति थे इसलिए परिवार में धन धान्य की कोई कमी ना थी।
एक घटना के बाद इनके जीवन में बदलाव आया और उन्होंने 1846, 21 वर्ष की आयु में सन्यासी जीवन का चुनाव किया और अपने घर से विदा ली उनमें जीवन सच को जानने की इच्छा प्रबल थी, जिस कारण उन्हें सांसारिक जीवन व्यर्थ दिखाई दे रहा था, इसलिए ही इन्होंने अपने विभाग के प्रस्ताव को ना बोल दिया। इस विषय पर इनकी और इनके पिता के मध्य कई विवाद भी हुए पर इनकी प्रबल इच्छा और दृढ़ता के आगे इनके पिता को झुकना पड़ा। उनके इस व्यवहार से यह स्पष्ट था कि इनमें विरोध करने एवं खुलकर अपने विचार व्यक्त करने की कला जन्म से ही निहित थी इसी कारण ही इन्होंने अंग्रेजी हुकूमत का कड़ा विरोध किया और देश को आर्य भाषा अर्थात हिंदी के प्रति जागरूक बनाया।
कैसे बदला स्वामी जी का जीवन
स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम मूल शंकर तिवारी था, यह एक साधारण व्यक्ति थे, जो सदा पिता की बात का अनुसरण करते थे। जाति से ब्राह्मण होने के कारण परिवार सदैव धार्मिक अनुष्ठानों में लगा रहता था। एक बार महाशिवरात्रि के पर्व पर इनके पिता ने इनसे उपवास करके विधि विधान के साथ पूजा करने को कहा और साथ रात्रि जागरण व्रत का पालन करने कहा। पिता के निर्देशानुसार मूलशंकर व्रत का पालन किया। पूरा दिन उपवास किया और रात्रि जागरण के लिए वे शिव मंदिर में ही पालकी लगा कर बैठ गये। अर्ध रात्रि में उन्होंने मंदिर में एक दृश्य देखा जिसमें चूहों का झुण्ड भगवान की मूर्ति को घेरे हुए हैं। और सारा प्रसाद खा रहे हैं तब मूलशंकर जी के मन में प्रश्न उठा यह भगवान की मूर्ति वास्तव में एक पत्थर की शिला ही है, जो स्वयं की रक्षा नहीं कर सकती उससे हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं। उस एक घटना ने मूल शंकर के जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव डाला और उन्होंने आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना घर छोड़ दिया। और स्वयं को ज्ञान के जरिए मूल शंकर तिवारी से महर्षि दयानंद सरस्वती बनाया।
1857 की क्रांति में योगदान
1846 में घर से निकलने के बाद उन्होंने सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ बोलना प्रारंभ किया, उन्होंने देश भ्रमण के दौरान यह पाया, कि लोगों में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश है बस उन्हें उचित मार्गदर्शन की जरूरत है, इसलिए उन्होंने लोगों को एकत्र करने का कार्य किया। उस समय के महान वीर भी स्वामी जी से प्रभावित थे, फोन पर नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां,बाला साहब आदि थे, इन लोगों ने स्वामी जी के अनुसार कार्य किया। लोगों को जागरूक कर सभी को संदेशवाहक बनाया गया। जिससे आपसी रिश्ते बने और एकजुटता आए इस कार्य के लिए उन्होंने रोटी तथा कमल योजना भी बनाई और सभी को देश की आजादी के लिए जोड़ना प्रारंभ किया। इन्होंने सबसे पहले साधु-संतों को जोड़ा जिससे उन के माध्यम से जनसाधारण को आजादी के लिए प्रेरित किया जा सके।
जीवन में गुरु का महत्व
ज्ञान की चाह में यह स्वामी विरजानंद जी से मिले और उन्हें अपना गुरु बनाया। विरजानंद ने ही इन्हें वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करवाया। इन्हें योग शास्त्र का ज्ञान दिया। विरजानंद जी से ज्ञान प्राप्ति के बाद जब स्वामी दयानंद जी ने इनसे गुरु दक्षिणा का पूछा, तब विरजानंद ने इन्हे समाज सुधार, समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ कार्य करने, अंधविश्वास को मिटाने वैदिक शास्त्र का महत्व लोगों तक पहुंचाने, परोपकार ही धर्म है, इसका महत्व सभी को समझाने जैसे कठिन संकल्पों में बांधा और इसी संकल्प को अपने गुरु दक्षिणा कहा।
आर्य समाज स्थापना
वर्ष 1875 में मैं इन्होंने मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज का मुख्य धर्म मानव धर्म ही था। उन्होंने परोपकार मानव सेवा करने एवं ज्ञान को मुख्य आधार बताया जिनका उद्देश्य मानसिक शारीरिक एवं सामाजिक उन्नति था। ऐसे विचारों के साथ स्वामी जी ने आर्य समाज की नींव रखी, जिससे कई महान विद्वान प्रेरित हुए। कईयों ने स्वामी जी का विरोध किया, लेकिन इनके ज्ञान के आगे कोई टिक ना सका बड़े-बड़े विद्वानों पंडितों को स्वामी जी के आगे सर झुकाना पड़ा। इसी तरह अंधविश्वास के अंधकार में वैदिक प्रकाश की अनुभूति सभी को होने लगी थी।
आर्य भाषा (हिंदी) का महत्व
वैदिक प्रचार के उद्देश्य स्वामी जी देश के हर हिस्से में व्यख्यान रख देते थे, संस्कृत में प्रचंड होने के कारण इनकी शैली संस्कृत भाषा ही थी। बचपन से ही उन्होंने संस्कृत भाषा को पढ़ना और समझना प्रारंभ कर दिया था। इसलिए वेदों को पढ़ने में इन्हें कोई परेशानी नहीं हुई, एक बार वे कलकात्ता गए और वहां केशव चंद्र सेन से मिले। केशव जी भी स्वामी जी से प्रभावित थे, लेकिन उन्होंने स्वामी जी को एक परामर्श दिया। कि वह अपना विज्ञान संस्कृत में ना देकर आर्य भाषा अर्थात हिंदी में दें जिससे विद्वानों के साथ-साथ साधारण मनुष्य तक भी उनके विचार आसानी से पहुंच सके। तब वर्ष 1862 से स्वामी जीने हिंदी में बोलना प्रारंभ किया और बनाने का संकल्प लिया हिंदी भाषा के बाद ही स्वामी जी को कई अनुयायी मिले, जिन्होंने उनके विचारों को अपनाया। आर्यसमाज का समर्थन सबसे अधिक पंजाब प्रांत में किया गया।
समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध एवं एकता का पाठ
महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने समाज के प्रति स्वयं को उत्तरदायी माना और इसलिए ही उसमें व्याप्त कुरीतियों एवं अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज बुलंद की।
बाल विवाह विरोध
उस समय बाल विवाह की प्रथा सभी जगह व्याप्त थी। सभी उसका अनुसरण सहर्ष करते थे, तब स्वामी जी ने शास्त्रों के माध्यम से लोगों को इस प्रथा के विरुद्ध जगाया। उन्होंने स्पष्ट किया कि शास्त्रों में उल्लेखित है, मनुष्य जीवन में अग्रिम 25 वर्ष ब्रह्म्चर्य के हैं, उसकी अनुसार बाल विवाह एक कुप्रथा है। उन्होंने कहा कि अगर बाल विवाह होता है वह मनुष्य निर्बल बनता है और निर्बलता के कारण समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त होता है।
सती प्रथा विरोध
पति के साथ पत्नी को भी उसकी मृत्यु शैया पर अग्नि को समर्पित कर देने जैसी अमानवीय सती प्रथा का भी उन्होंने विरोध किया और मनुष्य जाति को प्रेम आदर का भाव सिखाया परोपकार का संदेश दिया।
विधवा पुनर्विवाह
देश में व्याप्त ऐसी बुराई जो आज भी देश का हिस्सा है। विधवा स्त्रियों का स्तर आज भी देश में संघर्षपूर्ण है। दयानंद सरस्वती जी ने इस बात की बहुत निंदा की और उस जमाने में भी नारियों के सह सम्मान पुनर्विवाह के लिए अपना मत दिया और लोगों को इस और जागरूक किया।
एकता का संदेश
दयानंद सरस्वती जी का एक स्वप्र था, जो आज तक अधूरा है,वे सभी धर्मों और उनके अनुयाई को एक ही ध्वज तले बैठा देखना चाहते थे। उनका मानना था आपसी लड़ाई का फायदा सदैव तीसरा लेता है, इसलिए इस भेद को दूर करना आवश्यक है जिसके लिए उन्होंने कई सभाओं का नेतृत्व किया लेकिन वे हिंदू मुस्लिम एवं ईसाई धर्मों का एक माला में पिरो ना सके।
नारी शिक्षा एवं समानता
स्वामी जी ने सदैव नारी शक्ति का समर्थन किया। उनका मानना था। कि नारी शिक्षा ही समाज का विकास है, उन्होंने नारी को समाज का आधार कहा उनका कहना था, जीवन के हर क्षेत्र में नारियों से विचार-विमर्श आवश्यक है जिसके लिए उनका शिक्षित होना जरूरी है।
स्वामी जी के खिलाफ षड्यंत्र
अंग्रेजी हुकूमत को स्वामी जी से भय सताने लगा था। स्वामी जी के वक्तव्य का देश पर गहरा प्रभाव था, जिसे वे अपनी हार के रूप में देख रहे थे, इसलिए उन्होंने स्वामी जी पर निरंतर निगरानी शुरू की स्वामी जी ने कभी अंग्रेजी हुकूमत और उनके आफिसर के सामने हार नहीं मानी थी, बल्कि उन्हें मुंह पर कटाक्ष की जिस कारण अंग्रेजी हुकूमत स्वामी जी के सामने स्वयं की शक्ति पर संदेह करने लगी और किस कारण उनकी हत्या के प्रयास करने लगी कई बार स्वामी जी को जहर दे दिया गया लेकिन स्वामी जी योग में पारंगत थे और इसलिए उन्हें कुछ नहीं हुआ।
अंतिम षड्यंत्र
1883 में स्वामी दयानंद सरस्वती जोधपुर के महाराज के यहां गये राजा यशवंत सिंह ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। उनकी कई व्यख्यान सुने एक दिन जब राजा यशवंत एक नर्तकी की नन्ही जान के साथ व्यस्त थे तब स्वामी जी ने यह सब देखा और अपने स्पष्ट वादिता के कारण उन्होंने इसका विरोध किया और शांत स्वर में यशवंत सिंह को समझाया कि एक तरफ आप धर्म से जुड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ इस तरह की विलासिता से आलिंगन हैं ऐसे में ज्ञान प्राप्ति असंभव है, स्वामी जी की बातों का यशवंत सिंह पर गहरा असर हुआ। और उन्होंने नन्ही जान से अपने रिश्ते खत्म किये। इस कारण नन्ही जान स्वामी जी से नाराज हो गये और उसने रसौईया के साथ मिलकर स्वामी जी के भोजन में कांच के टुकड़े मिला दिए। जिससे स्वामी जी का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया, उसी समय इलाज प्रारंभ हुआ लेकिन स्वामी जी को राहत नहीं मिली रसौईया ने अपनी गलती स्वीकार कर माफी मांगी स्वामी जी ने उसे माफ कर दिया। उसके बाद उन्हें 26 अक्टूबर को अजमेर भेजा गया। लेकिन हालात में सुधार नहीं आया और उन्होंने 30 अक्टूबर 1883 में दुनिया से रुक्सत ले ली।
अपने 59 वर्ष के जीवन में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने राष्ट्रीय में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लोगों को जगाया और अपने वैदिक ज्ञान से नवीन प्रकाश को देश में फैलाया। यह एक संत के रूप में शांत वाणी से गहरा का कटाक्ष करने की शक्ति रखते थे और उनके इसी निर्भय स्वभाव ने देश में शिवराज का संचार किया।
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