आकाशदीप कहानी का सारांश || Aakashdeep kahani ka Saransh

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आकाशदीप कहानी का सारांश || Aakashdeep kahani ka Saransh

आकाशदीप कहानी का सारांश || Aakashdeep kahani ka Saransh

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आकाशदीप कहानी का सारांश || Aakashdeep kahani ka Saransh

प्रश्न-'आकाशदीप' कहानी की विषय वस्तु संक्षेप में लिखिए?

उत्तर- जयशंकर प्रसाद विरचित 'आकाशदीप' कहानी की कथावस्तु अबला कही जाने वाली अनाथ युवती चंपा की स्वातन्त्रय,लालसा पिता के हत्यारे से प्रतिशोध और फिर उसी से प्रेम करने के कारण उपजे अंतर्द्वंद पर आधारित है। उसका यह अंतरद्वंद समय और परिस्थितियों के चलते किस प्रकार मानव सेवा में परिणित होकर उसे प्रेम का बलिदान करने के लिए प्रेरित करता है। यही इस कहानी की कथावस्तु है। कहानी की कथावस्तु जयशंकर प्रसाद के उस आदर्शवाद से प्रेरित है, जिसके सम्मुख व्यक्तिगत प्रेम, सुख-समृद्धि की लालसा व्यक्ति को तुच्छ लगने लगती है और वह सर्वस्व का परित्याग करके लोक-कल्याण के मार्ग पर स्वयं को समर्पित कर देता है। उसी में वह अपने जीवन की सार्थकता मानता है।

'आकाशदीप' कहानी का सारांश (कथानक)


आकाशदीप कहानी का आरंभ समुद्र की तरंगों पर हिचकोले खाते पोत पर बंदी बनाकर रखे गए 2 बंदियों के वार्तालाप से होता है। दोनों बंदी एक दूसरे से अपरिचित और अनजान हैं, तूफान के कारण पोत की व्यवस्था भंग हो जाती है और दोनों परिस्थितियोंवश रात्रि के अंधकार में लुढ़कते हुए एक दूसरे से टकरा जाते हैं। दोनों बंधन मुक्त होना चाहते हैं और अपने प्रयास में सफल भी हो जाते हैं। जब दोनों हर्षातिरेक से एक दूसरे को गले लगाते हैं, तब उन्हें पता चलता है कि उनमें से एक स्त्री है और दूसरा पुरुष। स्त्री का नाम चंपा और पुरुष का नाम बुद्ध गुप्त है। चंपा पोताध्यक्ष मणिभद्र के प्रहरी की एकलौती किशोर छत्रिय पुत्री है, 8 बरस से पोत ही उसका घर है। बुद्धगुप्त एक युवा जलदस्यु है जो ताम्रलिप्त का छत्रिय है। पोत को लूटने के उपक्रम में चंपा के पिता बुद्धगुप्त के हाथों मारे जा चुके हैं।


पोताध्यक्ष मणिभद्र ने अपनी कामवासना की तृप्ति में विफल होकर चंपा को बंदी बनाकर रखा। स्वातंत्र्य युद्ध में मणिभद्र चंपा और बुद्धगुप्त द्वारा मारा जा चुका है,पोत के नायक ने युद्ध में परास्त होकर उनकी शरण ले ली है। 2 दिन पश्चात पोत एक नए दीप पर लंगर डाल देता है। बुद्ध गुप्त उस द्वीप का नाम चंपा द्वीप रख देता है।


दोनों की चंपा द्वीप पर रहते 5 बरस बीत गए। संध्या समय चंपा एक दीप को जलाकर मंजूषा में रखकर दीपाधार को डोरी खींचकर ऊपर आकाश में चढ़ा रही है। द्वीप पर बुद्धगुप्त और चंपा का राज चलता है। बुद्धगुप्त की आज्ञा से सभी द्वीपवासी चंपा को रानी कहते हैं; क्योंकि चंपा अपने पिता के हत्यारे जलदस्यु बुद्धगुप्त को क्षमा नहीं कर पाई है। अंततः चंपा उसके सम्मुख अपना हृदय हारकर अपना प्रतिशोध का कृपाण निकालकर समुद्र में फेंक देती हैं। इस पर बुद्धगुप्त उससे कहता है-"तो आज से मैं विश्वास करूं क्षमा कर दिया गया?" इस पर चंपा उससे कहती है- 'विश्वास? कदापि नहीं बुद्धगुप्त! जब मैं अपने हृदय पर विश्वास नहीं कर सकी, उसी ने धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूं? मैं तुम्हें घृणा करती हूं, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूं। अंधेर है जलदस्यु! तुम्हें प्यार करती हूं।" चंपा रो पड़ी।


1 दिन किसी समारोह का आयोजन किया जा रहा था। बांसुरी ढोल बज रहे थे, फूलों से सजी वन बालाएं नाच रही थीं। चंपा ने सहचरी जया से पूछा-"यह क्या है जया?" जया ने हंसकर उत्तर दिया- "आज रानी का ब्याह है न?" चंपा को इस पर विश्वास ना हुआ। उसने उसे झकझोरकर पूछा-  "क्या यह सच है?" तभी बुद्धगुप्त कहता है- "यदि तुम्हारी इच्छा हो तो यह सच भी हो सकता है चंपा।" इस पर चंपा प्रतिप्रश्न करती है-"क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर तुमने आज सब प्रतिशोध लेना चाहा?" बुद्धगुप्त अपना पक्ष रखता हुआ कहता है कि मैं तुम्हारे पिता का घातक नहीं हूं चंपा! वह एक दूसरे दस्यु के शस्त्र से मरे! बुद्धगुप्त अंततः चंपा के पैर पकड़कर कहता है कि मुझे अपने देश भारतवर्ष की बहुत याद आती है, मैं वहां लौटना चाहता हूं। चलोगी चंपा? पोतवाहिनी पर असंख्य धनराशि लादकर राजरानी-सी जन्मभूमि के अंक में? इस पर चंपा ने उसके हाथ पकड़ लिए। किसी आकस्मिक झटके ने एक पल भर के लिए दोनों के अंधरों को मिला दिया। सहसा चैतन्य होकर चंपा ने कहा-"बुद्धगुप्त! मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरल है; सब पवन शीतल है। प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख घूमने के लिए, और मुझे, छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दुख की सहानुभूति और सेवा के लिए।"


एक दिन स्वर्ण-रहस्य के प्रभात में चंपा ने अपने दीप-स्तंभ पर से देखा-सामुद्रिक नावों की एक श्रेणी चंपा का उपकूल छोड़कर पश्चिम-उत्तर की ओर महाजल-व्याल के समान संतरण कर रही है। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।


यह कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चंपा आजीवन उस दीप स्थल में आलोक जलाती रही। किंतु उसके बाद भी बहुत दिन, दीप-निवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी की समाधि-सदृश पूजा करते थे।

1 दिन काल के कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चंचलता से गिरा दिया।


प्रश्न- जयशंकर प्रसाद की 'आकाशदीप' कहानी के आधार पर चंपा का चरित्र चित्रण कीजिए।


उत्तर- हिंदी कथा साहित्य की कुछ अमर कृतियों में से जयशंकर प्रसाद की आकाशदीप कहानी भी एक है। इस कहानी की नायिका चंपा ही कहानी की मुख्य नारी पात्रा है। वह अपने वीर और बलिदानी पिता की एकमात्र संतान है। उसकी चारित्रिक विशेषताएं निम्नलिखित हैं-


1. सुंदर बालिका - चंपा अति सुंदर बालिका है। वह सौंदर्य की साक्षात् प्रतिमूर्ति है। यह उसके अतीव सौन्दर्य का ही प्रभाव था कि बुद्धगुप्त जिसके नाम से बाली, जावा और चंपा का आकाश पूंजता था, पवन थर्राता था, घुटनों के बल चंपा के सामने; प्रणय निवेदन करता, छलछलाई आंखों से बैठा था।


 2. निडर, स्वाभिमानी और साहसी - चंपा, निडर स्वाभिमानी और साहसी है। उसकी निडरता का पता तब चलता है जब मणिभद्र उसके समक्ष घृणित प्रस्ताव रखता है और वह उसके आश्रय में रहते हुए भी उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। उसके स्वाभिमानी होने का प्रमाण उसके बंदी बनाए जाने पर मिलता है। उसे बंदी होना स्वीकार है, लेकिन घृणित प्रस्ताव स्वीकार नहीं। उसके साहस का परिचय अनजाने द्वीप पर सबसे पहले उतारने पर मिलता है।


3. आदर्श प्रेमिका - चंपा के हृदय में प्रेम का अथाह सागर हिलोरे लेता है, परंतु वह इसे प्रेम- सागर की लहरों को नियंत्रण में रखना जानती है। बुद्धगुप्त जब भी उसके पास आता है वह उस पर न्योछावर हो जाती है। उसके प्रेम का वर्णन स्वयं कहानीकार ने इन शब्दों में किया है- "उसे सौरभ से पागल चंपा ने बुद्धगुप्त के दोनों हाथ पकड़ लिए। वहां एक आलिंगन हुआ, जैसे छितिज में आकाश और सिन्धु का।"


4. आदर्श संतान - चंपा अपने माता पिता की आदर्श संतान है। उसे अपनी माता के द्वारा पिता के पथ-प्रदर्शन के प्रत्येक रूप में आकाशदीप जलाना सदैव याद रहता है। उसके पिता की मृत्यु का कारण एक जलदस्यु था, यह वह कभी नहीं भूल पाती। वह बुद्धगुप्त से कहती है कि यह आकाशदीप मेरी मां की पुण्य स्मृति है। वह बुद्धगुप्त को जलदस्यु से संबोधित कर अपने सामने से हट जाने के लिए भी कहती है।


5. अंतर्द्वंद - चंपा का पूरा चरित्र अंतर्द्वंद की भावना से भरा हुआ है। दीप वासियों के प्रति उसका प्रेम और व्यक्तिगत प्रेम का सहज अंतर्द्वंद उसको घेरे रहता है। एक और वह कर्तव्य निर्वाह के लिए अपने प्रेम को निछावर कर देती है तो दूसरी और व्यक्तिगत प्रेम के गौरव की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग भी कर देती है। उसको अंतर्द्वंद इन शब्दों में व्यक्त हुआ है-


बुद्धगुप्त! मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरल है; सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित नहीं। सब मिलाकर मेरे लिए एक शून्य है। और मुझे, छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दुख की सहानुभूति और सेवा के लिए।


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