'समय' कहानी का सारांश हिंदी में || samay kahani ka Saransh

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'समय' कहानी का सारांश हिंदी में || samay kahani ka Saransh

'समय' कहानी का सारांश हिंदी में || samay kahani ka Saransh

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'समय' कहानी का सारांश हिंदी में || samay kahani ka Saransh

प्रश्न- श्री यशपाल द्वारा लिखित 'समय' कहानी का सारांश (कथानक) अपने शब्दों में लिखिए।

या

समय कहानी की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।

उत्तर- कथाकार यशपाल मानव मन की कोमल भावनाओं के अद्वितीय पारखी हैं। छोटी-छोटी भावना भी उनकी दृष्टि से बच नहीं पाई है। यही कारण है कि उनकी अधिकांश कहानियों की कथावस्तु इन्हीं भावनाओं पर आधारित है। इनकी 'समय' नामक कहानी की कथावस्तु भी ऐसी ही एक भावना के रूप में ग्रहण की गई है। 'समय' की कथावस्तु का कलेवर अथवा विस्तार बहुत विस्तृत नहीं है, वरन् अत्यंत संक्षिप्त है। इस कहानी की कथावस्तु मात्र इतनी है कि समय किसी व्यक्ति और उसके बच्चों की मानसिकता में किस प्रकार परिवर्तन लाकर व्यक्ति को जीवन की संध्या-बेला में नितांत अकेला छोड़ देता है, जबकि उस समय उसे बच्चों के सहारे की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। 'समय' कहानी में भी जो बच्चे बचपन में पापा का सान्निध्य पाने के लिए लालायित रहते हैं, वही बच्चे पापा के रिटायर हो जाने पर बुढ़ापे में उनके साथ कहीं आने-जाने से कतराने लगते हैं; क्योंकि उस समय पापा उनके लिए पापा ना होकर एक बूढ़ा होता है, जिसकी संगति उनके अपनी-अपनी स्वतंत्रता में बाधक और बोर करने वाली लगती है। कहानीकार; क्योंकि स्वयं कहानी का एक पात्र है; अतः इसकी कथावस्तु आत्मकथात्मक है।


'समय' कहानी का सारांश (कथानक)


रिटायर होने के डेढ़-दो वर्ष पूर्व से ही पापा को रिटायर होने के बाद की चिंता सताने लगी थी कि रिटायरमेंट के बाद व्यवस्थित जीवन किस प्रकार से व्यतीत होगा। इसी चिंता के कारण उन्होंने अभी से उस समय के लिए योजनाएं बनानी आरंभ कर दी हैं; जैसे रिटायर होने के बाद उन्हें मितव्ययिता करनी पड़ेगी, इसीलिए इसका पूर्वाभ्यास उन्होंने अभी से आरंभ कर दिया है। यही कारण है कि गर्मियों में महीने 2 महीने हिल स्टेशन पर बिताने के अपने शौक में उन्होंने परिवर्तन कर लिया है और अब वहां जाना छोड़ दिया है। अभी तक पापा को संध्या समय ठहलने के लिए अथवा शॉपिंग के लिए जाते समय बच्चों को साथ ले जाना कम पसंद था; क्योंकि उन्हें बाजार में हम बच्चों द्वारा कोई चीज मांग लेने पर तमाशा बनना पसंद नहीं था। हमारे कोई चीज मांगने पर वे ठक डांट-डपट नहीं करते थे, बल्कि वह वस्तु दिला देते थे। अवकाश प्राप्त हो जाने पर अवकाश के बोझ से बचने के लिए उन्होंने अच्छी-खासी दिनचर्या बना ली है। शासन काल के 36 वर्ष के अनुभव पर उन्होंने 'एथिक्स ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन' (शासन का नैतिक पक्ष) पर एक पुस्तक लिखने का निर्णय लिया है इससे उनके सुबह-शाम दो-दो घंटे के समय का सदुपयोग हो जाता है। घर की हल्की-फुल्की चीजें खरीदने भी वे अब संध्या के समय हजरतगंज पैदल ही चले जाते हैं।


रिटायर होने के बाद अब पापा के व्यवहार में अनेक परिवर्तन आए हैं। पहले वे अच्छी पोशाक के शौकीन थे, किंतु अब बेपरवाह हो गए हैं। अब मम्मी ही खीजकर उनके लिए जबरदस्ती कपड़े खरीद कर लाती हैं। अब वे हम बच्चों को अपने साथ बाजार ले जाने लगे हैं। इसका कारण यह है कि अब हम गुब्बारे वाले या आइसक्रीम वाले को देखकर ठुनकने वाले बच्चे नहीं रह गए हैं। अब उन्हें अपने जवान, स्वस्थ बच्चों की संगति पर कुछ गर्व होने लगा है। वे स्वयं ही बाजार में कॉफी या आइसक्रीम का प्रस्ताव हमारे सामने रखते हैं। वे दूसरे रिटायर लोगों की भांति अपने अनुभवों, पुराने जमाने की मंदी और आज की महंगाई आदि की चर्चा करके हमें बोर नहीं करते, फिर भी उनके साथ रहकर हम अपने दोस्तों के मिलने पर भी कोई उच्छृंखलता नहीं कर सकते। संध्या-समय हम लोगों में से किसी-ना-किसी को अपने साथ ले जाने का सबसे मुख्य प्रयोजन यह है कि सूर्यास्त के पश्चात सड़क पर प्रकाश कम होने पर वे ठोकर खा जाते हैं और प्रकाश अधिक होने पर चकाचौंध से परेशानी अनुभव करते हैं।


पिछले जाड़ों की बात है कि एक दिन शाम को मैं जापान का एक अत्यंत रोचक यात्रा वर्णन पढ़ रहा था, उसे समाप्त किए बिना पत्रिका छोड़ने को मन ना करता था। तभी पापा ने अपने कमरे से हम बच्चों के लिए पुकार लगाई - "कोई है हजरतगंज की सवारी।" हमारी तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना मिलने पर उन्होंने फिर पुकारा - "है कोई चलने वाला।"


पापा के इस पुकार की प्रक्रिया में ऊपर पुष्पा दीदी के कमरे से सुनाई दिया - "मंटू, जाओ न, पापा के साथ घूम आओ।"


मंटू ने अपने कमरे से पुष्पा दीदी को उत्तर दिया - "तुम भी क्या दीदी…. बोर…. बुड्ढों के साथ कौन बोर हो!"


मंटू ने अपने विचार में स्वर दबाकर उत्तर दिया था, परंतु उसकी बात पापा के समीप के कमरे में भी मैं सुन सका था। पत्रिका आंखों के सामने से हट गई। नजर पापा के कमरे में चली गई। पापा ने जरूर सुन लिया था। जान पड़ा, वे कोट हैंगर से उतारकर पहनने जा रहे थे। कोट उनके हाथ में रह गया। चेहरे पर एक विचित्र, विषण्ण-सी-मुस्कान आ गई। कोट उसी प्रकार हाथ में लिए कुर्सी पर बैठ गए। नजर फर्श की ओर, परंतु चेहरे पर विषण्ण मुस्कान। कई क्षण बिल्कुल निश्चल बैठे रहे, मानो किसी दूर की स्मृति में खो गए हों।


पापा सहसा, मानो दृढ़ निश्चय से, कुर्सी से उठ खड़े हुए। कोट पहन लिया और मम्मी को संबोधन कर पुकारा - "सुनो, कई बार पहाड़ से छड़ियां लाए हैं, तो कोई एक तो दो!"


एक छड़ी उठाकर मैंने अपने कमरे में रख ली थी। पापा को उत्तर दिया - "एक तो यहां पड़ी है, चाहिए?" छड़ी कोने से उठाकर पापा के सामने कर दी।


"हां, यह तो बहुत अच्छी बात है।" पापा ने चढ़ेगी मूठ पर हाथ फेरकर कहा और छड़ी टेकते हुए किसी की ओर देखे बिना घूमने के लिए चले गए; मानो हाथ की छड़ी को टेककर उन्होंने समय को स्वीकार कर लिया।


प्रश्न- 'समय' कहानी का प्रमुख पात्र कौन है? उस का चरित्र चित्रण कीजिए अथवा उसकी चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

या

'समय' कहानी के प्रमुख पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए।


उत्तर- 'समय' कहानी का प्रमुख पात्र एक अवकाश प्राप्त अधिकारी है। कहानी में इन्हें 'पापा' की संज्ञा दी गई है। इनके चरित्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-


1. संभावित भविष्य के प्रति चिंतित - 'पापा' अपनी नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के पूर्व से ही चिंतित थे कि अवकाश का बोझ कैसे संभलेगा और जीवन का अधिकांश समय कैसे व्यतीत होगा?


2. व्यवस्थित दिनचर्या के व्यक्ति - 'पापा' व्यवस्थित दिनचर्या वाले व्यक्ति हैं। अवकाश प्राप्त होने पर उन्हें कार्यालयीय भार से मुक्ति मिल जाएगी। अतः समय का सदुपयोग करने के लिए उन्होंने पहले से ही योजना बना ली थी कि वे अपने शासन-कार्य के अनुभव पर एक पुस्तक लिखेंगे। अब वे इस पर अध्ययन करते हैं और नोट्स भी बनाते हैं। शाम को वे विभिन्न वस्तुओं की खरीदारी भी करते हैं।


3. शौकीन मिजाज - पापा बहुत ही शौकीन मिजाज के व्यक्ति थे। उनकी पोशाक हमेशा चुस्त-दुरुस्त रहती थी। अपने उपयोग में आने वाली अच्छी और स्तरीय वस्तुओं का उन्हें शौक था। नौकरी के दौरान वे खर्चीले स्वभाव के थे। गर्मियों के दिनों में पर्वतीय स्थानों पर घूमने व रहने का उन्हें बड़ा शौक था। घर में हमेशा 2-3 नौकर रहा करते थे।


4. जीवन से संतुष्ट - पापा अपनी नौकरी के समय में अपने जीवन से संतुष्ट थे और अब अवकाश के समय में भी संतुष्ट हैं। अपने जिन शौक और रुचियों से उन्हें अब संतुष्टि नहीं होती, उन शौक और रुचियों  को अपने बच्चों द्वारा पूरा होते देखकर वे संतुष्ट हो जाते हैं।


5. युवा दिखने की चाहत - पापा को शुरू से ही युवा दिखने की चाहत थी। इसीलिए मम्मी के साथ घूमने जाते समय वे बच्चों को अपने साथ नहीं ले जाते थे; क्योंकि इससे उन्हें अपने बुजुर्गों होने का अनुभव होता था।


6. समय के साथ परिवर्तन - अवकाश प्राप्त होने के बाद पापा मितव्ययी हो गए। दूसरे वे बच्चों को भी अपने साथ ले चलना चाहते हैं; क्योंकि बच्चे भी अब कद में उनसे ऊंचे, जवान, स्वस्थ और सुडौल हो गए हैं। इससे उन्हें अब गर्व का अनुभव होता है।


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